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सत्रहवाँ अध्ययन : आकीर्ण ]
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परन्तु घ्राणेन्द्रिय (नासिका) की दुर्दान्तता से अर्थात् नासिका - इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि औषधि (वनस्पति) की गंध से सर्प अपने बिल से बाहर निकल आता है। अर्थात् नासिका के विषय में आसक्त हुआ सर्प सँपेरे के हाथों पकड़ा जाकर अनेक कष्ट भोगता है ॥ ६ ॥
तित्त- कडुयं कसायंब - महुरं बहुखज्ज - पेज्ज - लेज्झेसु ।
आसायंमि उ गिद्धा, रमंति जिब्भिंदियवसट्टा ॥ ७ ॥
रस में आसक्त और जिह्वा इन्द्रिय के वशवर्त्ती हुए प्राणी कड़वे, तीखे, कसैले, खट्टे एवं मधुर रस वाले बहुत खाद्य, पेय, लेह्य (चाटने योग्य) पदार्थों में आनन्द मानते हैं ॥ ७ ॥
जिब्भिंदियदुद्दन्त - त्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो ।
जंगललग्गुक्खित्तो, फुरइ थलविरल्लिओ मच्छो ॥ ८ ॥
किन्तु जिह्वा इन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष उत्पन्न होता है कि गल (बडिश) में लग्न होकर जल से बाहर खींचा हुआ मत्स्य स्थल में फैंका जाकर तड़पता है ।
अभिप्राय यह है कि मच्छीमार मछली को पकड़ने के लिए मांस का टुकड़ा कांटे में लगाकर जल हैं। मांस का लोभी मत्स्य उसे मुख में लेता है और तत्काल उसका गला विंध जाता है। मच्छीमार उसे जल से बाहर खींच लेते हैं और उसे मृत्यु का शिकार होना पड़ता है ॥ ८ ॥
- भयमाण- सुहेहि य, सविभव - हियय-मणनिव्वुइकरेसु । फासे रज्जमाणा, रमंति फासिंदियवसट्टा ॥ ९ ॥
स्पर्शेन्द्रिय के वशीभूत हुए प्राणी स्पर्शेन्द्रिय की अधीनता से पीड़ित होकर विभिन्न ऋतुओं में सेवन करने से सुख उत्पन्न करने वाले तथा विभव ( समृद्धि) सहित हितकारक ( अथवा वैभव वालों को हितकारक) तथा मन को सुख देने वाले माला, स्त्री आदि पदार्थों में रमण करते हैं ॥ ९ ॥
फासिंदियद्दन्त- तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो ।
जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो ॥ १०॥
किन्तु स्पर्शनेन्द्रिय का दमन न करने से इतना दोष होता है कि लोहे का तीखा अंकुश हाथी के मस्तक को पीड़ा पहुँचाता है। अर्थात् स्वच्छंद रूप से वन में विचरण करने वाला हाथी स्पर्शनेन्द्रिय के वश में होकर पकड़ा जाता है और फिर पराधीन बनकर महावत की मार खाता है ॥ १० ॥
इन्द्रियसंवर का सुफल
कलरिभियमहुरतंती- तल-ताल- वंस - ककुहाभिरामेसु ।
सद्देसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए ॥ ११ ॥
कल, रिभित एवं मधुर तंत्री, तलताल तथा बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते ।