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________________ ४७८ ] इन्द्रियलोलुपता का दुष्फल ३० – कल- रिभिय-महुर - तंती-तलतालवंसक उहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदियवसट्टा ॥ १ ॥ कल अर्थात् श्रुतिसुखद और हृदयहारी, रिभित अर्थात् स्वरघोलना के प्रकार वाले, मधुर वीणा, तलताल (हाथ की ताली - करताल) और बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं ॥ १ ॥ सोइंदियदुद्दन्त- तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । दीविगरुयमसहंतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो ॥ २ ॥ किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय की उच्छृङ्खलता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए तीतुर के शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी वध और बंधन को प्राप्त होता है। [ ज्ञाताधर्मकथा तात्पर्य यह है कि पारधि के पिंजरे में फँसे हुए तीतुर का शब्द सुनकर वन का स्वाधीन तीतुर अपने स्थान से निकल जाता है और पारिधि उसे भी फँसा लेता है। श्रोत्रेन्द्रिय को न जीतने से ऐसे दुष्परिणाम की प्राप्ति होती है ॥ २ ॥ थण-जहण-वयण-कर-चरण-णयण-गव्विय-विलासियगइसु । रमंति चक्खिदिवसट्टा ॥ ३॥ रूवेसु रज्जमाणा, चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत और रूपों में अनुरक्त होने वाले पुरुष, स्त्रियों के स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर, नेत्रों में तथा गर्विष्ठ बनी हुई स्त्रियों की विलासयुक्त गति में रमण करते हैं- आनन्द मानते हैं ॥ ३ ॥ चक्खिदियदुद्दन्त - त्तणस्स अह एत्तिओ भवइ दोसो । जं जलणम्मि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ ॥ ४ ॥ परन्तु चक्षु इन्द्रिय की दुर्दान्तता से इतना दोष होता है कि- जैसे बुद्धिहीन पतंगा जलती हुई आग में आ पड़ता है अर्थात् चक्षु के वशीभूत हुआ पतंगा जैसे प्राणों से हाथ धो बैठता है, उसी प्रकार मनुष्य भी वध - बंधन के घोर दुःख पाते हैं ॥ ४ ॥ अगुरु-वरपयरधूवण, -उउय - मल्लाणुलेवणविहीसु। रज्जमाणा, रमंति घाणिंदियवसट्टा ॥ ५ ॥ गंधे सुगंध में अनुरक्त हुए और घ्राणेन्द्रिय के वश में पड़े हुए प्राणी श्रेष्ठ अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि को प्राप्त माल्य (जाई आदि के पुष्पों) तथा अनुलेपन (चन्दन आदि के लेप) की विधि में रमण करते हैं अर्थात् सुंगंधित पदार्थों के सेवन में आनन्द का अनुभव करते हैं ॥ ५ ॥ घाणिंदियदुद्दन्त- तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो । जं ओसहिगंधेणं, विलाओ निद्धावई उरगो ॥ ६ ॥
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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