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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] [४६१ अध्ययन करके बहुत वर्षों तक बेला, तेला, चोला, पंचोला तथा अर्धमास-खमण, मासखमण आदि तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। २२०-तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोरुहइ, जाव पव्वइया सुव्वयाए अजाए सिस्सिणीयत्ताए दलयति, इक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छटुट्ठमदसमदुवालसेहिं जाव विहरइ। द्रौपदी देवी भी शिविका से उतरी, यावत् दीक्षित हुई। वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गयी। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त, अष्ठभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हुई विचरने लगी। २२१–तए णं थेरा भगवंतो अन्नया कयाई पंडुमहुराओ णयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति। - तत्पश्चात् किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से निकले। निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। भगवान् अरिष्टनेमि का निर्वाण - २२२–तेणं कालेणं तेणं समएणं अरिहा अरिट्ठनेमी जेणेव सुरट्ठाजणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ–'एवं खलु देवाणुप्पिया! अरिहा अरिट्ठनेमी सुरट्ठाजणवए जाव विहरइ। तए णं से जुहिट्ठिल्लपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी _ 'एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिट्ठनेमी पुव्वाणुपुब्बि जाव विहरइ, तं सेयं खलु अम्हं थेरे भगवंते आपुच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं वंदणाए गमित्तए।' अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति पडिसुणित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामी ण तुब्भेहिं अब्भणुनाया समाणा अरहं अरिट्टनेमिं जाव गमित्तए। 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' उस काल और उस समय में अरिहन्त अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे। पधार कर सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहुत जन परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो! तीर्थंकर अरिष्टनेमि सुराष्ट्र जनपद में यावत् विचर रहे हैं।' तब युधिष्ठिर प्रभृति पांचों अनगारों ने बहुत जनों से यह वृत्तान्त सुन कर एक दूसरे को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो! अरिहन्त अरिष्टनेमि अनुक्रम से विचरते हुए यावत् सुराष्ट्र जनपद में पधारे हैं, अतएव स्थविर भगवंत से पूछकर तीर्थंकर अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाना हमारे लिये श्रेयस्कर है।' परस्पर की यह बात सबने स्वीकार की। स्वीकार करके वे जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ गये। जाकर स्थविर भगवन्त को वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उनसे कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम अरिहंत अरिष्टनेमि
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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