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. [ज्ञाताधर्मकथा को वन्दना करने हेतु जाने की इच्छा करते हैं।'
स्थविर ने अनुज्ञा दी–'देवानुप्रियो! जैसे सुख हो, वैसा करो।'
२२३–तए णं ते जहुट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अब्भणुन्नाया समाणा थेरे भगवंते वंदंति, णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता मासंमासेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणा जाव जेणेव हत्थिकप्पे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हत्थिकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति।
तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने स्थविर भगवान् से अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दनानमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके वे स्थविर के पास से निकले। निकल कर निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम आते हुए, यावत् जहाँ हस्तिकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर हस्तिकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे।।
___ २२४-तएणं ते जुहिट्ठिलवजा चत्तारि अणगारा मासक्खमणपारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति बीयाए एवं जहा गोयमसामी, णवरं जुहिट्ठिलं आपुच्छंति, जाव अडमाणा बहुजणसदं णिसामेंति-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिट्ठनेमी उजिंतसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे।'
तत्पश्चात् युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अनगारों ने मासखमण के पारणक के दिन पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया। शेष गौतमस्वामी के समान वर्णन जानना चाहिए। विशेष यह कि उन्होंने युधिष्ठिर अनगार से पूछा-भिक्षा की अनुमति माँगी। फिर वे भिक्षा के लिए जब अटन कर रहे थे, तब उन्होंने बहुत जनों से सुना-'देवानुप्रियो! तीर्थंकर अरिष्टनेमि गिरिनार पर्वत के शिखर पर, एक मास का निर्जल उपवास करके, पांच सौ छत्तीस साधुओं के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो गये हैं, यावत् सिद्ध, मुक्त, अन्तकृत् होकर समस्त दुःखों से रहित हो गये हैं।'
२२५-तए णं ते जुहिट्ठिलवजा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा हत्थिकप्पओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे, जेणेव जुहिट्ठिले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चुवेक्खंति, पच्चुवेक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेंति, पडिदंसित्ता एवं वयासी
___ तब युधिष्ठिर के सिवाय वे चारों अनगार बहुत जनों के पास से यह अर्थ सुन कर हस्तिकल्प नगर से बाहर निकले। बाहर निकलकर जहाँ सहस्राम्रवन था और जहाँ युधिष्ठिर अनगार थे वहाँ पहुँचे। पहुँच कर आहार-पानी की प्रत्युपेक्षणा की, प्रत्युपेक्षणा करके गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। फिर एषणा-अनेषणा की आलोचना की। आलोचना करके आहार-पानी दिखलाया। दिखलाकर युधिष्ठिर अनगार से कहा
__२२६–'एवं खलु देवाणुप्पिया! जाव' कालगए, ते सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! इमं
१. अ. १६. सूत्र २२४