SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 512
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ ४५९ तत्पश्चात् एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई। फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत् सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया । बारह दिन व्यतीत होने पर बालक के माता-पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि - क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी देवी का आत्मज है, अतः इस बालक का नाम 'पाण्डुसेन' होना चाहिए । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उसका 'पाण्डुसेन' नाम रखा। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र के पश्चात् ' अंगसुत्ताणि' में रायपसेणियसूत्र के आधार पर निम्नलिखित पाठ अधिक दिया गया है तए णं तं पंडुसेणं दारयं अम्पापियरो साइरेगट्ठवासयं चेव सोहणंसि तिहिकरण-मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेंति । तसे कलारिए पंडुसेणं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणिरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहावेइ, सिक्खावेइ । 'जाव अलं भोगसमत्थे जाए। जुवराया विहरइ ।' अर्थात्-पाण्डुसेन पुत्र जब कुछ अधिक आठ वर्ष का हो गया तो माता-पिता शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में उसे कलाचार्य के पास ले गये । कालाचार्य ने पाण्डुसेन कुमार को लेखनकला से प्रारम्भ करके गणितप्रधान और शकुनिरुत तक की बहत्तर कलाएँ सूत्र - मूलपाठ से, अर्थ से और करण - प्रयोग से सिखलाईं। यथासमय पाण्डुसेन मानवीय भोग भोगने में समर्थ हो गया। वह युवराज पद पर प्रतिष्ठित हो गया। प्रस्तुत पाठ के स्थान पर टीका वाली प्रति में संक्षिप्त पाठ इस प्रकार दिया गया है'बावत्तरि कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए, जुवराया जाव विहरइ ।' यद्यपि यह वर्णन प्रत्येक राजकुमार के लिए सामान्य है, इसमें कोई नवीन- मौलिक बात नहीं है, तथापि इससे आगे के पाठ में पाण्डवों की दीक्षा का प्रसंग वर्णित है। बालक के नामकरण के पश्चात् ही मातापिता के दीक्षा-प्रसंग का वर्णन आ जाए तो कुछ अटपटा-सा लगता है, अतएव बीच में इस पाठ का संकलन करना ही उचित प्रतीत होता है। पुत्र युवराज हो तो उसे राजसिंहासन पर आसीन करके माता-पिता प्रव्रजित हो जाएँ, यह जैन- परम्परा का वर्णन अन्यत्र भी देखा जाता है। अतएव किसी-किसी प्रति में उल्लिखित पाठ उपलब्ध न होने पर भी यहाँ उसका उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। स्थविर - आगमन : धर्म-श्रवण २१७ - तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसां' थेरा समोसढा । परिसा निग्गया । पंडवा निग्गया, धम्मं सोच्चा एवं वयासी – 'जं णवरं देवाणुप्पिया ! दोवई देविं आपुच्छामो, पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो, तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामो ।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया!' उस काल और समय में धर्मघोष स्थविर पधारे। धर्मश्रवण करने और उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। पाण्डव भी निकले। धर्म श्रवण करके उन्होंने स्थविर से कहा - ' -'देवानुप्रिय ! हमें संसार से १. किन्हीं प्रतियों में 'धम्मघोसा' पद नहीं है ।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy