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[ज्ञाताधर्मकथा
आदेश दिया है और तुम समग्र दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के स्वामी हो, तो बतलाओ वे किस देश में, किस दिशा या विदिशा में जाएँ?' पाण्डु-मथुरा की स्थापना
२१४-तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं देवि एवं वयासी-'अपूइवयणा णं पिउच्छा! उत्तमपुरिसा-वासुदेवा बलदेवा चक्कवटी।तं गच्छंतु णं देवाणुप्पियए! पंच पंडवा दाहिणिल्लं वेयालिं, तत्थ पंडुमहुरं णिवेसंतु, ममं अदिट्ठसेवगा भवंतु।'त्ति कटु सक्कारेइ, सम्माणेइ, जाव [सक्कारित्ता संमाणिता] पडिविसज्जेइ।
___ तब कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी से कहा-'पितृभगिनी! उत्तम पुरुष अर्थात् वासुदेव, बलदेव और चक्रवर्ती अपूतिवचन होते हैं-उनके वचन मिथ्या नहीं होते। (वे कहकर बदलते नहीं हैं, अतः मैं देशनिर्वासन की आज्ञा वापिस लेने में असमर्थ हूँ) देवानुप्रिये! पांचों पांडव दक्षिण दिशा के वेलातट (समुद्र किनारे) जाएँ, वहाँ पाण्डु-मथुरा नामक नयी नगरी बसायें और मेरे अदृष्ट सेवक होकर रहे अर्थात् मेरे सामने न आएँ। इस प्रकार कहकर उन्होंने कुन्ती देवी का सत्कार-सम्मान किया, यावत् [सत्कार-सम्मान करके] उन्हें विदा दी।
२१५-तए णंसा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमटुंणिवेदेइ । तए णं पंडू राया पंच पंडवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे पुत्ता! दाहिणिल्लंवेयालिं, तत्थ णं तुब्भे पंडुमहुरं णिवेसेह।'
तए थे पंच पंडवा पडुस्स रण्णो जाव [एयमढें ] तह त्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सबलवाहणा हयगय हत्थिणाउराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नयरिं निवेसंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते विपुलभोगसमितिसमण्णागया यावि होत्था।
तत्पश्चात् कुन्ती देवी ने द्वारवती नगरी से आकर पाण्डु राजा को यह अर्थ (वृत्तान्त) निवेदन किया। तब पाण्डु राजा ने पांचों पाण्डवों को बुलाकर कहा–'पुत्रो! तुम दक्षिणी वेलातट (समुद्र के किनारे) जाओ वहाँ पाण्डुमथुरा नगरी बसा कर रहो।'
तब पांचों पाण्डवों ने पाण्डु राजा की यह बात-'तथास्तु-ठीक है' कह कर स्वीकार की। स्वीकार करके बल और वाहनों के साथ घोड़े और हाथी [आदि की चतुरंगिणी सेना तथा अनेक भटों को साथ लेकर हस्तिनापुर से बाहर निकले। निकल कर दक्षिणी वेलातट पर पहुंचे। पाण्डुमथुरा नगरी की स्थापना की। नगरी की स्थापना करके वे वहाँ विपुल भोगों के समूह से युक्त हो गये-सुखपूर्वक निवास करने लगे। पाण्डुसेन का जन्म
२१६-तए णं सा दोवई देवी अन्नया कयाइ आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था। तए णं दोवई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया सूमालं, कोमलयं गयतालुयसमाणं, णिव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं गोण्णं गुणनिष्फण्णं नामधेनं करेंति-जम्हा णं अम्हंएस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए देवीए अत्तए, तं होउ अहं इमस्स दारगस्सणामधेनं 'पंडुसेणे'। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेंति पंडुसेण त्ति।