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[ज्ञाताधर्मकथा
तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर पांच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय! आपके द्वारा विसर्जित होकर अर्थात् आज्ञा पाकर हम लोग जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये। वहाँ आकर हमने नौका की खोज की। उस नौका से पार पहुँच कर आपके बल की परीक्षा करने के लिए हमने नौका छिपा दी। फिर आपकी प्रतीक्षा करते हुए हम यहाँ ठहरे हैं।' श्रीकृष्ण का पाण्डवों पर रोष-देशनिर्वासन
___ २०८-तए णं कण्हे वासुदेवे तेसिं पंचण्हं पंडवाणं एयमटुं सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते जाव' तिवलियं एवं वयासी-'अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयहस्सा वित्थिन्नं वीईवइत्ता पउमणाभं हयमहिय जाव पडिसेहित्ता अमरकंका संभग्गा, दोवई साहत्थिं उवणीया, तयाणंतुब्भेहिं मम माहप्पंण विण्णायं, इयाणिं जाणिस्सह!'त्ति कटुलोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे चूरेइ, चूरित्ता णिव्विसए आणवेइ आणवित्ता तत्थ णं रहमद्दणे नामं कोटे णिविठे।
पांच पाण्डवों का यह अर्थ (उत्तर) सुनकर और समझ कर कृष्ण वासुदेव कुपित हो उठे, उनकी तीन बल वाली भृकुटि ललाट पर चढ़ गई। वह बोले-'ओह, जब मैंने दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को पार करके पद्मनाभ को हत और मथित करके, यावत् पराजित करके अमरकंका राजधानी को तहस-नहस किया और अपने हाथों से द्रौपदी लाकर तुम्हें सौंपी, तब तुम्हें मेरा माहात्म्य नहीं मालूम हुआ! अब तुम मेरा माहात्म्य जान लोगे!' इस प्रकार कहकर उन्होंने हाथ में एक लोहदण्ड लिया और पाण्डवों के रथ को चूरचूर कर दिया। रथ चूर-चूर करके उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दी। फिर उस स्थान पर रथमर्दन नामक कोट स्थापित किया-रथमर्दन तीर्थ की स्थापना की।
२०९-तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था। तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवई नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बारवइं णयरिं अणुपविसइ।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव अपनी सेना के पड़ाव (छावनी) में आये। आकर अपनी सेना के साथ मिल गये। उसके पश्चात् कृष्ण वासुदेव जहाँ द्वारका नगरी थी, वहाँ आये। आकर द्वारका नगरी में प्रविष्ट हुए।
२१०-तएणं ते पंच पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जेणेव पंडू तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-'एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं णिव्विसया आणत्ता।'
तए णं पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासी–'कहं णं पुत्ता! तुब्भे कण्हेणं वासुदेवेणं णिव्विसया आणत्ता?'
तए णं ते पंच पंडवा पंडुरायं एवं वयासी-'एवं खलु ताओ! अम्हे अमरकंकाओ पडिनियत्ता लवणसमुदं दोन्निं जोयणसयसहस्साई वीइवइत्था तए णं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! गंगामहाणदिं उत्तरह' जाव चिट्ठह, ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठमो। तए णं कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई दठूण तं चेव सव्वं, नवरं कण्हस्स १. अ. १६ सूत्र २०३ २. अ. १६. सूत्र २०४-२०७