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सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी]
[४३५ उस समय पद्मनाभ राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा। देखकर वह आसन से उठा। उठ कर [सात-आठ कदम सामने गया, तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया] अर्घ्य से उनकी पूजा की यावत् आसन पर बैठने के लिए उन्हें आमंत्रित किया।
१४६-तए णं से कच्छुल्लणारए उदयपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ, जाव' कुसलोदंतं आपुच्छइ।
तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद ने जल से छिड़काव किया, फिर दर्भ बिछा कर उस पर आसन बिछाया और फिर वे उस आसन पर बैठे। बैठने के बाद यावत् कुशल-समाचार पूछे।
१४७-तए णं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासी-'तुब्भं देवाणुप्पिया! बहूणि गामाणि जावगेहाइं अणुपविससि, तं अत्थियाइं ते कहिंचि देवाणुप्पिया एरिसए ओरोहे दिट्ठपुव्वे जारिसए णं मम ओरोहे ?'
इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपनी रानियों (के सौन्दर्य आदि) में विस्मित होकर कच्छुल्ल नारद से प्रश्न किया-'देवानुप्रिय! आप बहुत-से ग्रामों यावत् गृहों में प्रवेश करते हो, तो देवानुप्रिय! जैसा मेरा अन्त:पुर है, वैसा अन्त:पुर आपने पहले कभी कहीं देखा है?
- १४८-तएणं से कच्छुल्लनारए पउमनाभेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे ईसिं विहसियंकरेइ, करित्ता एवं वयासी-'सरिसे णं तुमं पउमणाभा! तस्स अगडददुरस्स।'
'के णं देवाणुप्पिया! से अगडदददुरे?' एवं जहा मल्लिणाए।
एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे दुपयस्स रण्णो धूया, चुलणीए देवीए अत्तया, पंडुस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूवेण य जाव उक्किट्ठसरीरा।दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्ठयस्सअयं तव ओरोहे सइमं पिकलंण अग्घइ त्ति कटु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जाव पडिगए।
___ तत्पश्चात् राजा पद्मनाभ के इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद थोड़ा मुस्कराए। मुस्करा कर बोले-'पद्मनाभ! तुम कुएँ के उस मेंढक के सदृश हो।'
(पद्मनाभ ने पूछा) देवानुप्रिय! कौन-सा वह कुएँ का मेंढक? जैसा मल्ली ज्ञात (अध्ययन) में कहा है, वही यहाँ कहना चाहिये।
(फिर बोले) 'देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप में, भरतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा पाण्डु राजा की पुत्रवधु और पांच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी रूप से यावत् लावण्य से उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट शरीर वाली है। तुम्हारा यह सारा अन्तःपुर द्रौपदी देवी के कटे हुए पैर के अंगूठे की सौवीं कला (अंश) की भी बराबरी नहीं कर सकता।' इस प्रकार कह कर नारद ने पद्मनाभ से जाने की अनुमति ली। अनुमति पाकर वह यावत् (तीव्र गति से) चल दिये।
१. अ. १६, सूत्र १४१
२. देखिए पृ. २५७