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________________ ४३६ ] ज्ञाताधर्मकथा - १४९ – तए णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयस्स अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म दोवईए देवीए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य मुच्छिए गढिए लुद्धे (गिद्धे ) अज्झोववन्ने जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं जाव [ अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता पुव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे- मणसीकरेमाणे चिट्ठइ । तए णं पउमनाभस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पुव्वसंगइओ देवो जाव आगओ । 'भणंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए कायव्वं । ' तणं पमणाभे ] पुव्वसंगतियं देवं एवं वयासी – एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थणाउरे नयरे जाव उक्किट्ठसरीरा, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! दोवई देविं इहमाणियं' । ' तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा, कच्छुल्ल नारद से यह अर्थ सुन कर और समझ कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन और लावण्य में मुग्ध हो गया, गृद्ध हो गया, लुब्ध हो गया, और (उसे पाने के लिए) आग्रहवान् हो गया। वह पौषधशाला में पहुँचा। पौषधशाला को [ पूंज कर, अपने पूर्व के साथी देव का मन में ध्यान करके, तेला करके बैठ गया । उसका अष्टमभक्त जब पूरा होने आया तो वह पूर्वभव का साथी देव आया । उसने कहा- देवानुप्रिय ! कहो, मुझे क्या करना है ? तब राजा पद्मनाभ ने] उस पहले के साथी देव से कहा- देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में, यावत् द्रौपदी देवी उत्कृष्ट शरीर वाली है । देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी यहाँ ले आई जाय । ' १५० - तए णं पुव्वसंगतिए देवे पउमनाभं एवं वयासी - 'नो खलु देवाणुप्पिया ! एवं भूयं भव्वं वा, भविस्सं वा, जं णं दोवई देवी पंच पंडवे मोत्तूण अन्नेणं पुरिसेणं सद्धिं ओरालाई ta [ माणुस्साई भोगभोगाई भुंजमाणी ] विहरिस्सइ, तहावि य णं अहं तव पियट्टयाए दोवई देविं इदं हव्वमाणेमि' त्ति कट्टु पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तत्पश्चात् पूर्वसंगतिक (पहले के साथी) देव ने पद्मनाभ से कहा - 'देवानुप्रिय ! यह कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि द्रौपदी देवी पाँच पाण्डवों को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ मानवीय उदार कामभोग भोगती हुई विचरेगी । तथापि मैं तुम्हारा प्रिय (इष्ट) करने के लिए द्रौपदी देवी को अभी यहाँ आता हूँ।' इस प्रकार कह कर देव ने पद्मनाभ से पूछा। पूछ कर वह उत्कृष्ट देव-गति से लवणसमुद्र के मध्य में होकर जिधर हस्तिनापुर नगर था, उधर ही गमन करने के लिए उद्यत हुआ । द्रौपदी-हरण १५१–तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणाउरे जुहिट्ठिले राया दोवईए देवीए सद्धिं आगासतलंसि सुहपसुत्ते यावि होत्था । १. पाठान्तर - 'हव्वमाणियं'।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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