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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] कोलाहल उन्हें प्रिय था। वे भांड के समान वचन बोलने के अभिलाषी थे। अनेक समर और सम्पराय (युद्धविशेष) देखने के रसिया थे। चारों ओर दक्षिणा देकर (दान देकर) भी कलह की खोज किया करते थे, अर्थात् कलह कराने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करते थे। ऐसे वह नारद तीन लोक में बलवान् श्रेष्ठ दसारवंश के वीर पुरुषों से वार्तालाप करके, उस भगवती (पूज्य) प्राकाम्य नामक विद्या का, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता था, स्मरण करके उडे और आकाश को लांघते हुए हजारों ग्राम, आकर (खान), नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, पट्टन और संबाध से शोभित और भरपूर देशों से व्याप्त पृथ्वी का अवलोकन करते-करते रमणीय हस्तिनापुर में आये और बड़े वेग के साथ पाण्डु राजा के महल में उतरे।
१४०-तए णं से पंडुराया कच्छुल्लनारयं एजमाणं पासइ, पासित्ता पंचहिं पंडवेहिं कुंतीए य देवीय सद्धिं आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्ठिता कच्छुल्लनारयं सत्तट्ठपयाई पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ।
___ उस समय पांडु राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा। देखकर पाँच पाण्डवों तथा कुन्ती देवी सहित वे आसन से उठ खड़े हुए। खड़े होकर सात-आठ पैर कच्छुल्ल नारद के सामने गये। सामने जाकर तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन किया, नमस्कार किया। वन्दननमस्कार करके महान् पुरुष के योग्य अथवा बहुमूल्य आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रण किया।
१४१-तए णं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीइत्ता पंडुरायं रजे जाव [यरटे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ।
तए णं ते पंडुराया कोंति देवी पंच य पंडवा कच्छुल्लाणारयं आढायंति जाव [ परियाणंति अब्भुटुंति ] पज्जुवासंति।
तत्पश्चात् उन कच्छुल्ल नारद ने जल छिड़ककर और दर्भ बिछाकर उस पर अपना आसन बिछाया और वे उस पर बैठ कर पाण्डु राजा, राज्य यावत् [राष्ट्र, कोष, कोठार, बल, वाहन, नगर और] अन्तःपुर के कुशल-समाचार पूछे। उस समय पाण्डु राजा ने, कुन्ती देवी ने और पाँचों पाण्डवों ने कच्छुल्ल नारद का खड़े होकर आदर-सत्कार किया। उनकी पर्युपासना की।
१४२-तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अवरियं अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मं ति कटु नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेइ, नो पज्जुवासइ।
किन्तु द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयमी, अविरत तथा पूर्वकृत पापकर्म का निन्दादि द्वारा नाश न करने वाला तथा आगे के पापों का प्रत्याख्यान न करने वाला जान कर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन का अनुमोदन नहीं किया, उनके आने पर वह खड़ी नहीं हुई। उसने उनकी उपासना भी नहीं की। द्रौपदी पर नारद का रोष
१४३-तए णं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए