SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३२] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्त: पुर के परिवार सहित एक-एक दिन बारी-बारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत् रहने लगे। १३८ - तए णं से पंडुराया अन्नया कयाई पंचहिं पंडवेहिं कोंतिए देवीए दोवईए देवीए यसद्धिं अंतो अंतो अंतेउरपरियाल सद्धिं संपरिवुडे सीहासणवरगए यावि होत्था । पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर अन्दर के परिवार के साथ परिवृत होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। नारद का आगमन १३९ – इमं च णं कच्छुल्लणारए दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए मज्झत्थोवत्थिय अल्लीण- सोम- पिय- दंसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्मउत्तरासंगरइयवत्थे दंडकमंडलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइय- गणेत्तिय - मुंजमेहल - वागलघरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणिओवयणउप्पयणि-लेसणीसु य संकामणि-अभिओगि-पण्णत्ति-गमणी- थंभीसु य बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे इट्ठ रामस्स य केसवस्स य पज्जुन-पईव-संब- अनिरुद्ध-निसढ- उम्मुय-सारण -गय-सुमुह-दुम्मुहाईण जायवाणं अद्भुट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलह - जुद्ध - कोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहुसु य समरेसु य संपराएसु दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरिसतिंलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवतिं पक्कमणिं गगणगमण-दच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो गामागार - नगर - खेड - कब्बड - मडंब - दोणमुह-पट्टणसंवाह - सहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं निब्भरजणपदं वसुहं ओलोइंतो रम्मं हत्थिणाउरं उवागए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए । इधर कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे। वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत जान पड़ते थे, परन्तु भीतर से कलहप्रिय होने के कारण उनका हृदय कलुषित था। ब्रह्मचर्यव्रत के धारक होने से वे मध्यस्थता को प्राप्त थे । आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था । उनका रूप मनोहर था । उन्होंने उज्ज्वल एवं सकल (अखंड अथवा शकल अर्थात् वस्त्रखंड) पहन रखा था । काला मृगचर्म उत्तरासंग के रूप में वक्षस्थल में धारण किया था। हाथ में दंड और कमण्डलु था । जटा रूपी मुकुट से उनका मस्तक शोभायमान था। उन्होंने यज्ञोपवीत एवं रुद्राक्ष की माला के आभरण, मूंज की कटिमेखला और वल्कल वस्त्र धारण किए थे। उनके हाथ में कच्छपी नाम की वीणा थी। उन्हें संगीत से प्रीति थी । आकाश में गमन करने की शक्ति होने वे पृथ्वी पर बहुत कम गमन करते थे । संचरणी ( चलने की), आवरणी (ढँकने की), अवतरणी (नीचे उतरने की), उत्पतनी (ऊँचे उड़ने की), श्लेषणी (चिपट जाने की), संक्रामणी (दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की), अभियोगिनी ( सोना चांदी अदि बनाने की), प्रज्ञप्ति (परोक्ष वृत्तान्त को बतला देने की), गमनी ( दुर्गम स्थान में भी जा सकने की) और स्तंभिनी (स्तब्ध कर देने की ) आदि बहुत-सी विद्याधरों संबन्धी विद्याओं में प्रवीण होने से उनकी कीर्त्ति फैली हुई थी। वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे । प्रद्युम्न, प्रदीप, सांब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, सारण, गजसुकुमाल, सुमुख और दुर्मुख आदि यादवों के साढ़े तीन कोटि कुमारों के हृदय के प्रिय थे और उनके द्वारा प्रशंसनीय थे । कलह (वाग्युद्ध) युद्ध (शस्त्रों का समर) और
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy