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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] [४३१ तत्पश्चात् वे वासुदेव वगैरह हजारों राजा हस्तिनापुर नगर में आये। तब पाण्डु राजा उन वासुदेव आदि राजाओं का आगमन जानकर हर्षित और संतुष्ट हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया और द्रुपद राजा के समान उनके सामने जाकर सत्कार किया, यावत् उन्हें यथायोग्य आवास प्रदान किए। तब वे वासुदेव आदि हजारों राजा जहाँ अपने-अपने आवास थे, वहाँ गये और उसी प्रकार (पहले कहे अनुसार संगीत-नाटक आदि से मनोविनोद करते हुए) यावत् विचरने लगे। __ १३५-तएणं से पंडुराया हत्थिणारं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुब्भेणं देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं' तहेव जाव उवणेति। तए णं वासुदेवपामोक्खा बहवेराया ण्हाया कयबलिकम्मा तं विपुलं असणं पाणंखाइमं साइमं तहेव जाव विहरंति। तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा–'हे देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम तैयार कराओ।' उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार किया यावत् वे भोजन तैयार करवा कर ले गये। तब उन वासुदेव आदि बहुत-से राजाओं ने स्नान एवं बलिकार्य करके उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार किया और उसी प्रकार (पहले कहे अनुसार) विचरने लगे। हस्तिनापुर में कल्याणकरण १३६–तए णं पंडुराया पंच पंडवे दोवइं च देविं पट्टयं दुरूहेइ, दुरूहित्ता सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेंति, पहावित्ता कल्लाणकरं करेइ, करित्ता ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से विपुलेणं असणपाणखइमसाइमेणं पुष्फवत्थेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता जाव पडिविसज्जेइ।तए णं ते वासुदेवपामोक्खा जाव[ बहवेरायसहस्सा पंडुएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साइं साइं रजाइं जेणेव साइं साइं नयराइं तेणेव] पडिगया। तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों को तथा द्रौपदी को पाट पर बिठलाया। बिठला कर श्वेत और पीत कलशों से उनका अभिषेक किया-उन्हें नहलाया। फिर कल्याणकर उत्सव किया। उत्सव करके उन वासुदेव आदि बहुत हजार राजाओं का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्पों और वस्त्रों से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान करके यावत् उन्हें विदा किया। तब वे वासुदेव वगैरह बहुत से राजा यावत् अपने-अपने राज्यों एवं नगरों को लौट गए। १३७-तए णं ते पंच पंडवा दोवईए देवीए सद्धिं अंतो' अंतेउरपरियालसद्धिं कल्लाकल्लिं वारंवारेणं ओरलाई भोगभोगाइं जाव [भुंजमाणा] विहरंति। १. अ.१ सूत्र १०७
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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