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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ ४१७ व्याघात से रहित चम्पकलता के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगी। वह श्रेष्ठ राजकन्या बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् [क्रमशः यौवनावस्था को प्राप्त हुई, समझदार हो गई, उत्कृष्ट रूप, यौवन एवं लावण्य से सम्पन्न तथा ] उत्कृष्ट शरीर वाली भी हो गई । ८४ –तए णं तं दोवई रायवरकन्नं अण्णया कयाइ अंतेउरियाओ ण्हायं जाव विभूसियं करेंति, करित्ता दुवयस्स रण्णो पायवंदियं पेसंति । तए णं सा दोवई रायवरकन्ना जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेइ । राजवरकन्या द्रौपदी को एक बार अन्त: पुर की रानियों (अथवा दासियों) ने स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया। फिर द्रुपद राजा के चरणों की वन्दना करने के लिए उसके पास भेजा। तब श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी द्रुपद राजा के पास गई। वहाँ जाकर उसने द्रुपद राजा के चरणों का स्पर्श किया। ८५ - तए णं से दुवए राया दोवई दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता दोवईए रायवरकन्नाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए दोवनं रायवरकन्नं एवं वयासी – 'जस्स णं अहं पुत्ता! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि, तए णं ममं जावजीवाए हिययडाहे भविस्सइ, तं णं अहं तव पुत्ता! अज्जयाए सयंवरं विरयामि, अज्जया गं तुमं दिण्णसयंवरा, जं णं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरेहिसि, से णं तव भत्तारे भविस्सइ, त्ति कट्टु ताहिं इट्ठाहिं जाव आसासेइ, आसासित्ता पडिविसज्जेइ । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बिठलाया। फिर राजवरकन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य को देखकर उसे विस्मय हुआ । उसने राजवरकन्या द्रौपदी से कहा - 'हे पुत्री ! मैं स्वयं किसी राजा अथवा युवराज की भार्या के रूप में तुझे दूँगा तो कौन जाने वहाँ तू सुखी हो या दुःखी ? (दुःखी हुई तो मुझे जिन्दगी भर हृदय में दाह होगा । अतएव हे पुत्री ! मैं आज से तेरा स्वयंवर रचता हूँ। आज से ही मैंने तुझे स्वयंवर में दी। अतएव तू अपनी इच्छा से जिस किसी राजा या युवराज का वरण करेगी, वही तेरा भर्त्तार होगा।' इस प्रकार कहकर इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ वाणी से द्रौपदी को आश्वासन दिया। आश्वासन देकर विदा कर दिया। द्रौपदी का स्वयंवर ८६ - तए णं से दुवए राया दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - 'गच्छह णं तुमं देवाप्पिया! बारवई नयरिं, तत्थ णं तुमं कण्हं वासुदेवं, समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे, बलदेवपामुक्खे पंच महावीरे, उग्गसेणपामोक्खे सोलस रायसहस्से, पज्जुण्णपामुक्खाओ अधुट्ठाओ कुमारकोडीओ, संबपामोक्खाओ सट्ठि दुद्दन्तसाहस्सीओ, वीरसेणपामुक्खाओ इक्कवीसं वीरपुरिससाहस्सीओ, महसेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ, अन्ने य बहवे राईसर- तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिइओ करयलपरिग्गहिअं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावित्ता एवं वयाहितत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूत बुलवाया। बुलवा कर उससे कहा- ' -'देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती (द्वारका) नगरी जाओ। वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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