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________________ ४१८] [ज्ञाताधर्मकथा दुर्दान्तों (उद्धत बलवानों) को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीर पुरुषों को, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को तथा अन्य बहुत-से राजाओं, युवराजों, तलवर, माडंविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह प्रभृति को दोनों हाथ जोड़कर, दसों नख मिला कर मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके और 'जय-विजय' शब्द कह कर बधाना-उनका अभिनन्दन करना। अभिनन्दन करके इस प्रकार कहना ८७–'एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धट्ठजुण्ण-कुमारस्स भगिणीए दोवईए रायवर-कण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं णं तुब्भे देवाणुप्पिया! दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह।' । _ 'हे देवानुप्रियो ! काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और राजकुमार धृष्टद्युम्न की भगिनी श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है। अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुए, विलम्ब किये बिना-उचित समय पर कांपिल्यपुर नगर में पधारना।' । ८८-तए णं से दूए करयल जाव कटु दुवयस्स रण्णो एयमढे विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह।' जाव ते वि तहेव उवट्ठति। तत्पश्चात् दूत ने दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके द्रुपद राजा का यह अर्थ (कथन) विनय के साथ स्वीकार किया। स्वीकार करके अपने घर आकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुला कर इस प्रकार कहा–'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाला अश्वरथ जोत कर उपस्थित करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ उपस्थित किया। ८९-तए णं से दूए पहाए जाव अलंकारविभूसियसरीरे चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव] बद्ध-वम्मिय-कवएहिं उप्पीलियसरासण-पट्ठिएहिं पिणद्धगेविजेहिं आवद्धि-विमल-वरचिंधपट्टेहिं ] गहियाऽऽउह-पहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे कंपिल्लपुरं नयरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पंचालजणवयस्स मझमझेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुरट्ठाजणवयस्स मझमझेणं जेणेव वारवई नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वारवई नगरि मझमझेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामुक्खे य दस दसारे जाव बलवगसाहस्सीओ करयल तं चेव जाव' समोसरह। तत्पश्चात् स्नान किये हुए अलंकारों से विभूषित शरीर वाले उस दूत ने चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आरोहण किया। आरोहण करके [अंगरक्षा के लिए कवच धारण करके, धनुष लेकर अथवा भुजाओं पर चर्म की पट्टी बांधकर, ग्रीवारक्षक धारण करके मस्तक पर गाढ़ा बंधा चिह्नपट्ट धारण करके] तैयार हुए अस्त्र १. अ. १६ सूत्र ८७
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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