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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी] [४१५ तब सुकुमालिका आर्या ने गोपालिका आर्या के इस अर्थ (कथन) का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया। वरन् अनादर करती हुई और अस्वीकार करती हुई उसी प्रकार रहने लगी। तत्पश्चात् दूसरी आर्याएँ सुकुमालिका आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगीं, यावत् [निन्दा करने लगीं, खीजने लगी, गर्दा करने लगीं] अनादर करने लगी और बार-बार इस अनाचार के लिए उसे रोकने लगीं। सुकुमालिका का पृथक् विहार ७८-तए णंतीसे सूमालियाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिजमाणीए जाव वारिजमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'जया णं अहं अगारवासमझे वसामि, तया णं अहं अप्पवसा, जया णं अहं मुंडे भवित्ता पव्वइया, तया णं अहं परवसा, पुव्विं च णं ममं समणीओ आढायंति, इयाणिं नो आढायंति, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए गोवालियाणं अंतियाओ पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सगंउवसंपजित्ताणं विहरित्तए'त्ति कटुएवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए गोवालियाणं अजाणं अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सगं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा अवहेलना की गई और रोकी गई उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का विचार यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-'जब मैं गृहस्थवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी। जब मैं मुंडित होकर दीक्षित हुई तब मैं पराधीन हो गई। पहले ये श्रमणियाँ मेरा आदर करती थीं किन्तु अब आदर नहीं करती हैं। अतएव कल प्रभात होने पर गोपालिका के पास से निकलकर, अलग उपाश्रय (स्थान) में जा करके रहना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा,' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर गोपालिका आर्या के पास से निकल गई। निकलकर अलग उपाश्रय में जाकर रहने लगी। निधन : स्वर्गप्राप्ति ७९-तए णं सा सूमालिया अजा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, जाव' चेएइ, तत्थ वियणं पासत्था, पासत्थविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता, संमत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागंपाउणइ, अद्धमासियाए संलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चाईसाणे कप्पे अणयरंसि विमाणंसि देगणियत्ताए उववण्णा। तत्थेगइयाणं देवीणं नव पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्पश्चात् कोई हटकने-मना करने वाला न होने से एवं रोकने वाला न होने से सुकुमालिका स्वच्छंदबुद्धि होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् जल छिड़ककर कायोत्सर्ग आदि करने लगी। तिस पर भी वह पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारिणी हो गई। पार्श्वस्थ की तरह विहार करने-रहने लगी। वह अवसन्न हो गई अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में आलसी हो गई और आलस्यमय विहार वाली हो गई। कुशीला अर्थात् अनाचार का सेवन करने वाली और कुशीलों के समान व्यवहार करने वाली हो गई। संसक्ता अर्थात् ऋद्धि रस और साता रूप गौरवों में आसक्त और संसक्त-विहारिणी हो गई। इस प्रकार उसने बहुत वर्षों तक १. अ. १६ सूत्र ७५
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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