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________________ ४१४] [ ज्ञाताधर्मकथा इमा इत्थिया पुरापोराणाणं जाव [ सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं कडाण कल्लाणाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणी ] विहरइ, तं जड़ णं केइ इमस्स सुचरियस्स तवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उरालाई जाव [ माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणी ] विहरिज्जामि' त्ति कट्टु नियाणं करेइ, करित्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ । उस सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को पाँच गोष्ठिक पुरुषों के साथ उच्चकोटि के मनुष्य संबन्धी कामभोग भोगते देखा । देखकर उसे इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ - ' अहा ! यह स्त्री पूर्व में आचरण किये हुए शुभ कर्मों का फल अनुभव कर रही है। सो यदि अच्छी तरह से आचरण किये गये इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कुछ भी कल्याणकारी फल- विशेष हो, तो मैं भी आगामी भव में इसी प्रकार के मनुष्य संबन्धी कामभोगों को भोगती हुई विचरूँ ।' उसने इस प्रकार निदान किया । निदान करके आतापनाभूमि से वापिस लौटी। सुकुमालिका की बकुशता ७५ - तए णं सा सूमालिया अज्जा सरीरबउसा जाया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराइं धोवेइ, कक्खंतराई धोवेइ, गोज्झतराइं धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि य णं पुव्वामेव उदएणं अब्भुक्खइत्ता तओ पच्छा ठाणं सेज्जं वा चेए । तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या शरीरबकुश हो गई, अर्थात् शरीर को साफ-सुथरा - सुशोभन रखने में आसक्त हो गई । वह बार-बार हाथ धोती, पैर धोती, मस्तक धोती, मुँह धोती, स्तनान्तर (छाती) धोती, धी तथा गुप्त अंग धोती। जिस स्थान पर खड़ी होती या कायोत्सर्ग करती, सोती, स्वाध्याय करती, वहाँ भी पहले ही जमीन पर जल छिड़कती थी और फिर खड़ी होती, कायोत्सर्ग करती, सोती या स्वाध्याय करती थी। ७६ - तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वयासी - ' एवं खलु देवाप्पिए! अज्जे ! अम्हं समणीओ निग्गंथाओ ईरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अज्जे ! सरीरबाउसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव चेएसि, तं तुमं णं देवाणुप्पिए! तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पाडिवज्जाहि ।' तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय ! हम निर्ग्रन्थ साध्वियाँ हैं, ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हैं। हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता, किन्तु हे आर्ये! तुम शरीरबकुश हो गई हो, बार-बार हाथ धोती हो, यावत् फिर स्वाध्याय आदि करती हो। अतएव देवानुप्रिये ! तुम बकुशचारित्र रूप स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित अंगीकार करो।' ७७ - तए णं सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमट्ठे नो आढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ । तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं अभिक्खणं अभिक्खणं अभिहीलंति जाव [ निंर्देति खिंसेंति गरिहंति ] परिभवंति अभिक्खणं अभिक्खणं मट्ठे निवारेंति ।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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