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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] तणं देवाप्पिया! किं दलयामो सुंकं सूमालियाए ?' तब जिनदत्त सार्थवाह ने सागरदत्त सार्थवाह से कहा - 'देवानुप्रिय ! मैं आपकी पुत्री, भद्रा सार्थवाही की आत्मजा सुकुमालिका की सागरदत्त की पत्नी के रूप में मँगनी करता हूँ । देवानुप्रिय ! अगर आप यह युक्त समझें, पात्र समझें, श्लाघनीय समझें और यह समझें कि यह संयोग समान है, तो सुकुमालिका सागरदत्त को दीजिए। अगर आप यह संयोग इष्ट समझते हैं तो देवानुप्रिय ! सुकुमालिका के लिए क्या शुल्क दें ?" ४२ - तए णं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासी - ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा जाव किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खलु अहं इच्छापि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं । तं जइणं देवाणुप्पिया! सागरदारए मम घरजामाउए भवइ, तेणं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि ।' [ ४०३ उत्तर में सागरदत्त ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय ! सुकुमालिका पुत्री हमारी एकलौती सन्तति है, एक ही उत्पन्न हुई है, हमें प्रिय है। उसका नाम सुनने से भी हमें हर्ष होता देखने की तो बात है ? अतएव देवानुप्रिय ! मैं क्षण भर के लिए भी सुकुमालिका का वियोग नहीं चाहता। देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा गृह-जामाता (घर - जमाई ) बन जाय तो मैं सागर दारक को सुकुमालिका दे दूं।' ४३ - तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदारगं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - ' एवं खलु ! सागरदत्ते सत्थवाहे ममं एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया! सूमालिगा दारिया इट्ठा, तं चेव, तं जइ णं सागरदत्तए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि । तणं से सागर जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठा । तत्पश्चात् जिनदत्तं सार्थवाह, सागरदत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर अपने घर गया। घर जाकर सागर नामक अपने पुत्र को बुलाया और उससे कहा- 'हे पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा हैदेवानुप्रिय! सुंकुमालिका लड़की मेरी प्रिय है, इत्यादि पूर्वोक्त यहाँ दोहरा लेना चाहिए। सो यदि सागर मेरा गृहजामाता बन जाय तो मैं अपनी लड़की दूँ।' ४४ जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर सागर पुत्र मौन रहा। (मौन रह कर अपनी स्वीकृति प्रकट की ।) - तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाई सोहणंसि तिहि-करण - नक्खत्त - मुहुत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइनियग-सयण-संबंन्धिपरियणं आमंते, जाव संमाणित्ता सागरं दारयं ण्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहावेइ, दुरूहावित्ता मित्तणाइ जाव संपरिवुडे सव्विड्ढी साओ गिहाओ निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता चंपानयरि मज्झंमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहड़, पच्चोरुहित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स उवणेइ । तत्पश्चात् एक बार किसी समय शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त्त में जिनदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया । तैयार करवाकर मित्रों, निज जनों, स्वजनों, संबन्धियों तथा परिजनों को आमंत्रित किया, यावत् जिमाने के पश्चात् सम्मानित किया। फिर सागर पुत्र को नहला - धुला कर
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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