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[ज्ञाताधर्मकथा णिक्खमित्ता सागरदत्तस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ, इमं च णं सूमालिया दारिया ण्हाया चेडियासंघ परिवुडा' उप्पिं आगासतलगंसि कणगतेंदूसएणं कीलमाणी कीलमाणी विहरइ।
एक बार किसी समय जिनदत्त सार्थवाह अपने घर से निकला। निकल कर सागरदत्त के घर के कुछ पास से जा रहा था। उधर सुकुमालिका लड़की नहा-धोकर, दासियों के समूह से घिरी हुई भवन के ऊपर छत पर सुवर्ण की गेंद से क्रीड़ा करती-करती विचर रही थी।
___३९-तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे सूमालियं दारियं पासइ, पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य जायविम्हए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एस णं देवाणुप्पिया! कस्स दारिया? किं वा णामधेजं से?'
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव एवं वयासी-'एसणं देवाणुप्पिया! सागरदत्तस्स सत्थवाहस्सधूया भद्दाए अत्तया सूमालिया नामं दारिया सुकुमालपाणिपाया जाव उक्किट्ठा।'
उस समय जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका लड़की को देखा। देखकर सुकुमालिका लड़की के रूप पर, यौवन पर और लावण्य पर उसे आश्चर्य हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और पूछा'देवानुप्रियो! वह किसकी लड़की है? उसका नाम क्या है?'
जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर वे कौटुम्बिक पुरुष हर्षित और सन्तुष्ट हुए। उन्होंने हाथ जोड़ कर इस प्रकार उत्तर दिया-'देवानुप्रिय! यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका नामक लड़की है। सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उत्कृष्ट शरीर वाली है।'
४०-तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे तेसिं कोडंबियाणं अंतिए एयमढं सोच्चा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हाए मित्तनाइपरिवुडे चंपाए नयरीए मझमझेणंजेणेव सायरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छड।तएणं सागरदत्ते सत्थवाहे जिणदत्तं सत्यवाहं एज्जमाणंपासइ, एजमाणं पासइत्ता आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ, उवणिमंतित्ता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं वयासी-'भण देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं?'
जिनदत्त सार्थवाह उन कौटुम्बिक पुरुषों से इस अर्थ (बात) को सुन कर अपने घर चला गया। फिर नहा-धोकर तथा मित्रजनों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर चम्पा नगरी के मध्यभाग में होकर वहाँ आया जहाँ सागरदत्त का घर था। तब सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आता देखा। आता देख कर वह आसन से उठ खड़ा हुआ। उठ कर उसने जिनदत्त को आसन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया। निमंत्रित करके विश्रान्त एवं विश्वस्त हुए तथा सुखद आसन पर आसीन हुए जिनदत्त से पूछा-'कहिए देवानुप्रिय! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है?'
४१-तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-'एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तव धूयं भद्दाए अत्तियं सूमालियं सागरदत्तस्स भारियत्ताए वरेमि। जइ णं जाणह देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पुत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिजउणं सूमालिया सागरस्स। १. पाठान्तर-चेडियाचक्कवाल०