SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९६] [ज्ञाताधर्मकथा थंडिल्ले तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता जाव इहं हव्वमागया। तं कालगए णं भंते! धम्मरुई अणगारे, इमे से आयारभंडए। ___आपका आदेश पा करके हम आपके पास से निकले थे। निकल कर सुभूमिभाग उद्यान के चारों तरफ धर्मरुचि अनगार की यावत् सभी ओर मार्गणा-गवेषणा करते हुए स्थंडिल भूमि में गये। वहाँ जाकर यावत् जल्दी ही यहाँ लौट आए हैं। भगवन् ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं। यह उनके आचार-भांड हैं। (इस प्रकार वहाँ का समग्र वृत्तान्त निवेदन कर पात्र आदि उपकरण गुरु महाराज के सामने रख दिए।) २२-तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुव्वगए उवओगं गच्छंति, गच्छित्ता समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खल अजो! मम अंतेवासी धम्मरुई नामं अणगारे पगइभदए जाव [ पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोहे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे भद्दए] विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविटे, तए णं सा नागसिरी माहणी जाव निसिरइ। तए णं धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमिति कटु जाव कालं अणवंखेमाणे विहरइ। तत्पश्चात् स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रुत में उपयोग लगाया। उपयोग लगाकर (समग्र घटित घटना को जान लिया, तब) श्रमण निर्ग्रन्थों कों और निर्ग्रन्थियों को बुलाकर उनसे कहा-'हे आर्यो! निश्चय ही मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नामक अनगार स्वभाव से भद्र यावत् [स्वभाव से उपशान्त मंद क्रोध-मान-माया-लोभ वाला, मृदुता से सम्पन्न, आत्मभाव में लीन, भद्र और] विनीत था। वह मासखमण की तपस्या कर रहा था। यावत् वह नागश्री ब्राह्मणों के घर पारणक-भिक्षा के लिये गया। तब नागश्री ब्राह्मणी ने उसके पात्र में सब-कासब कटुक, विष-सदृश तुंबे का शाक उंडेल दिया। तब धर्मरुचि अनगार अपने लिए पर्याप्त आहार जानकर यावत् काल की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे। तात्पर्य यह कि स्थविर ने पिछला समग्र वृत्तान्त अपने शिष्यों को सुना दिया। देवपर्याय की प्राप्ति २३-से णं धम्मरुइ अणगारे बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं सोहम्म जाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अजहण्णमणुक्कोसं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ धम्मरुइस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ जाव। [आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता] महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। ____धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय पाल कर, आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि में लीन होकर काल-मास में काल करके, ऊपर सौधर्म आदि देवलोकों को लांघ कर, यावत् सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान में देवरूप से उत्पन्न हुए हैं। वहाँ जघन्य-उत्कृष्ट भेद से रहित एक ही समान सब देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। धर्मरुचि देव की भी तेतीस सागरोपम की स्थिति हुई। वह धर्मरुचि देव उस सर्वार्थसिद्ध देवलोक से आयु स्थिति और भव का क्षय होने पर च्युत होकर सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy