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[ज्ञाताधर्मकथा
अप्पाणेणं सव्वं सरीरकोटुंसि पक्खिवइ।
तत्पश्चात् उस शरद् संबन्धी तिक्त, कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों कीडिया वहाँ आ गईं। उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुई।
तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ-यदि इस शरद् संबन्धी यावत् शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीड़ियाँ मर गईं, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि पर डाल दूंगा तो यह बहुत-से प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के वध का कारण होगा। अतएव इस शरद् संबन्धी यावत् तेल वाले शाक को स्वयं ही खा जाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। यह शाक इसी (मेरे) शरीर से ही समाप्त हो जाय-झर जाय। अनगार ने ऐसा विचार करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके मस्तक सहित ऊपर शरीर का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन करके वह शरद् सबन्धी तूंबे का तिक्त कटुक और बहुत तेल से व्याप्त शाक स्वयं ही, आस्वादन किए बिना अपने शरीर के कोठे में डाल लिया। जैसे सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह आहार सीधा उनके उदर में चला गया।
१६-तए णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव नेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव [बिउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा] दुरहियासा।
शरद् संबन्धी तुंबे का यावत् तेल वाला शाक खाने पर धर्मरुचि अनगार के शरीर में, एक मुहूर्त में (थोड़ी-सी देर में) ही उसका असर हो गया। उनके शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई। वह वेदना उत्कट थी, यावत् [विपुल, कर्कश, प्रगाढ तथा] दुस्सहं थी।
१७-तए णं धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार-परक्कमे अधारणिजमिति कटु आयारभंडगं एगंते ठवेइ, ठवित्ता थंडिल्लं पडिलेहइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथारेइ संथारित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरत्याभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी
___ शाक पेट में डाल लेने के पश्चात् धर्मरुचि अनगार स्थाम (उठने-बैठने की शक्ति) से रहित, बलहीन, वीर्य से रहित तथा पुरुषकार और पराक्रम से हीन हो गये। अब यह शरीर धारण नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर उन्होंने आचार के भाण्ड-पात्र एक जगह रख दिये। उन्हें रख कर स्थंडिल का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके दर्भ का संथारा बिछाया और वे उस पर आसीन हो गये, पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यंक आसान से बैठ कर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहा
१८-नमोऽत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं, पुव्विं पि णं मए धम्मघोसाणं थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीवाए जाव परिग्गहे,' इयाणिं पि णं अहं तेसिं चेव भगवंताणं अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवाए, जहा खंदओ जाव चरिमेहिं १. धर्मरुचि अनगार को मध्यवर्ती तीर्थंकर-शासन में हुए मानकर अंगसुत्ताणि' में बहिद्धादाणे पाठ का सुझाव दिया है।