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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] [३९३ स्थविर का आदेश १३-तए णं ते धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स नेहावगाढस्स गंधेण अभिभूया समाणा तओसालइयाओ नेहावगाढाओ एग बिंदुगंगहाय करयलंसिआसाएइ, तित्तगंखारं कडुयं अखजं अभोजं विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी-'जइणं तुमं देवाणुप्पिया! एयंसालइयं जाव नेहावगाढं आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि, तं मा णं तुमं देवाणुप्पिया! इमं सालइयं जाव आहारेसि, मा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि।तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया! इमं सालइयं एगंतमणावाए अचित्ते थंडिले परिट्ठवेहि, परिठ्ठवित्ता अन्नं फासुयं एसणिजं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारेहि।' उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरदऋतु संबन्धी तेल से व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस शरऋतु संबन्धी एवं तेल से व्याप्त शाक में से एक बूंद हाथ में ली, उसे चखा। तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय! यदि तुम यह शरदऋतु संबन्धी तेल वाला तुंबे का शाक खाओगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जाओगे, अतएव हे देवानुप्रिय! तुम इस शरदऋतु संबन्धी शाक को मत खाना। ऐसा न हो कि असमय में ही तुम्हारे प्राण चले जाएँ। अतएव हे देवानुप्रिय! तुम जाओ और यह शरदऋतु संबन्धी तुंबे का शाकं एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो। इसे परठकर दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका आहार करो।' १४-तएणं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, सुभूमिभागाओ उजाणाओ अदूरसामंते थंडिल्लं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता तओ सालइयाओ एग बिंदुगं गहेइ गहित्ता थंडलंसि निसिरइ। तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से निकले। निकलकर सुभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप अर्थात् कुछ दूर पर उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस शरद् सम्बन्धी तुंबे के शाक की बूंद ली और उस भूभाग में डाली। परठने से होने वाली हिंसा-स्वशरीर में प्रक्षेप १५-तए णं तस्स सालइस्स तित्तकडूयस्स बहूनेहावगाढस्स गंधेणं बहुणि पिपीलिगासहस्साणि पाइब्भूयाइं। जा जहा य णं पिपीलिगा आहारेइ सा तहा अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजइ। तए णं तस्स धम्मरुइस्स अणगारस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-'जइ ताव इमस्स सालइयस्स जाव एगमि बिंदुगंमि पक्खित्तंमि अणेगाइं पिपीलिगासहस्साइं ववरोविजंति, तं जई णं अहं एयं सालइयं थंडिल्लंसि सव्वं निसिरामि, तए णं बहूणं पाणाणं भूआणं जीवाणं सत्ताणं वहकारणं भविस्सइ। सेयं खलु ममेयं सालइयं जाव गाढं सयमेव आहारेत्तए, मम चेव एएणं सरीरेणं णिजाउ'त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता मुहपोत्तियं पडिलेहइ, पडिलेहित्ता ससीसोवरियंकायं पमज्जेइ, पमजित्तातं सालइयं तित्तकडुयं बहुनेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूएणं
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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