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[ज्ञाताधर्मकथा करेइ, करित्ता बीयाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता तहेव धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ, जाव चंपाए नयरीए उच्च-नीय-मज्झिमकुलाइं जाव अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपवितु।
____धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार थे। वह उदार-प्रधान अथवा उराल-उग्र तत्पश्चर्या करने के कारण पार्श्वस्थों-पासत्थों के लिए अति भयानक लगते थे। [घोर अर्थात् परीषह एवं इन्द्रियों रूपी शत्रुगणों को जीतने में उन पर दयाहीन थे। घोरगुण थे अर्थात् जिन महाव्रतों आदि के सेवन में दूसरे कठिनाई अनुभव करते हैं ऐसे गुणों का आचरण करने वाले थे। घोर तपस्वी-घोर तपस्या करने वाले थे। घोर ब्रह्मचारी-साधारण जनों द्वारा दुरनुचर ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले थे। शरीर में रहते हुए भी शरीर-संस्कार के त्यागी होने के कारण उच्छूढ़सरीर-शरीर के त्यागी-शारीरिक ममत्व से अस्पृष्ट-देहातीत दशा में रमण करने वाले थे। अनेक योजनपरिमाण क्षेत्र में स्थित वस्तु को भी भस्म कर देने वाली विपुल तेजोलेश्या जिनके शरीर में ही रहने के कारण संक्षिप्त थी, अर्थात् अपनी विपुल तेजोलेश्या का कभी प्रयोग नहीं करते थे। वे धर्मरुचि अनगार मास-मास का तप करते हुए विचरते थे। किसी दिन धर्मरुचि अनगार के मासक्षपण के पारणा का दिन आया। उन्होंने पहली पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी में ध्यान किया इत्यादि सब वृत्तान्त गौतमस्वामी के वर्णन के समान कहना चाहिए, तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन करके उन्हें ग्रहण किया। ग्रहण करके धर्मघोष स्थविर से भिक्षागोचरी लाने की आज्ञा प्राप्त की यावत् वे चम्पा नगरी में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुए। कटुक तुंबे का दान
११-तए णं सा नागसिरी माहणी धम्मरुइं एजमाणं पासइ, पासित्ता तस्स सालइयस्स त्तित्तकडुयस्स बहुसंभारसंजुत्तं णेहावगाढं निसिरणट्ठयाए हट्ठतुट्ठा उठेइ, उद्वित्ता जेणेव भत्तधरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तकडयं च बहुनेहं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सव्वमेव निसिरह।
तब नागश्री ब्राहणी ने धर्मरुचि अनगार को आते देखा। देख कर वह उस शरदऋतु सम्बन्धी, बहुतसे मसालों वाले और तेल से युक्त तुंबे के शाक को निकाल देने का योग्य अवसर जानकर हृष्ट-तुष्ट हुई और खड़ी हुई। खड़ी होकर भोजनगृह में गई। वहाँ जाकर उसने वह शरदऋतु सम्बन्धी तिक्त और कडुवा बहुत तेल वाला सब-का सब शाक धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया।
१२-तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापजत्तमिति कटुणागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चंपाए नगरीए मझमझेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सुभूमिभागे उजाणे जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मघोसस्स अदूरसामंते इरियावहियं पडिक्कमइ, अन्नपाणं पडिलेहेई अन्नपाणं करयलंसि पडिदंसेइ।
____ तत्पश्चात् धर्मरुचि अनगार ‘आहार पर्याप्त है' ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले। निकलकर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर निकले। निकलकर सुभूमिभाग उद्यान में आए। आकर उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन करके हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया।