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[ज्ञाताधर्मकथा
धन्य-सार्थवाह अपने सेवकों द्वारा चम्पा की गली-गली में यह घोषणा करवाता है कि-धन्य सार्थवाह अहिच्छत्रा नगरी जा रहा है। जिसे साथ चलना हो, चले। जिसके पास जिस साधन का अभाव होगा, वह उसकी पूर्ति करेगा। बिना छतरी वालों को छतरी और बिना जूतों वालों को जूते की व्यवस्था करेगा। जिसके पास मार्ग में खाने की सामग्री नहीं उसे वह सामग्री देगा। आवश्यकतानुसार मार्गव्यय के लिए धन देगा। रोगी हो जाने पर उसकी चिकित्सा कराएगा। तात्पर्य यह है कि अपने साथ चलने वालों को सभी प्रकार की सुविधाएँ कर देगा।
इस प्रकार अपने साथ असहाय जनों को ले जाने वाला और सभी प्रकार से उनकी सेवा करने वाला व्यापारी 'सार्थवाह' कहलाता था। सार्थ को अर्थात् सहयात्रियों के समूह को, वहन करने वाला अर्थात् कुशल-क्षेमपूर्वक यथास्थान पहुँचाने वाला 'सार्थवाह'।
__तब आज जैसे सुपथ-राजमार्ग नहीं थे, साधनाभाव के कारण लोगों का आवागमन कम होता था, उनके सम्बन्ध दूर-दूर तक फैले नहीं थे और पद-पद पर लुटेरों तथा हिंसक जन्तुओं का भय बना रहता था, द्रुतगामी वाहन नहीं थे, उस परिस्थिति को सामने रेखकर विचार करने पर विदित होगा कि यह भी एक बहुत बड़ी सेवा थी, जिसे सार्थवाह वणिक् स्वेच्छापूर्वक करता था।
धन्य-श्रेष्ठी का सार्थ चम्पा नगरी से रवाना हो गया। चलते-चलते और बीच-बीच में विश्रान्ति लेते-लेते सार्थ एक बहुत बड़ी अटवी के निकट पहुँचा। अटवी बड़ी विकट थी, उसमें लोगों का आवागमन नहीं जैसा था। उसके मध्यभाग में एक जाति के विषैले वृक्ष थे, जिनके फल, पत्ते, छाल आदि छूने, चखने, सूंघने और देखने में अत्यन्त मनोहर लगते थे, किन्तु वे सब, यहाँ तक कि उनकी छाया भी प्राणहरण करने वाली थी। अनुभवी धन्य-सार्थवाह उन नन्दीफल (तात्कालिक आनन्द प्रदान करने वाले फल वाले) वृक्षों से परिचित था। अतएव समस्त सार्थ को उसने पहले ही चेतावनी दे दी-'सार्थ का कोई भी व्याक्ति नन्दीफलों की छाया के निकट भी न फटके।' इस प्रकार उसने अपने उत्तरदायित्व का पूरी तरह निर्वाह किया।
धन्य-सार्थवाह की चेतावनी पर कुछ लोगों ने अमल किया, कुछ ऐसे भी निकले जो उन वृक्षों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के प्रलोभन को रोक न सके। जो उनसे बचे रहे वे सकुशल यथेष्ट स्थान पर पहुँच कर सुख के भागी बने। जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर अपने मन पर नियन्त्रण न रख सके उन्हें मृत्यु का शिकार होना पड़ा।
तात्पर्य यह है कि यह संसार भयानक अटवी है। इसमें इन्द्रियों के विविध विषय नन्दीफल के सदृश हैं। इन्द्रिय-विषय भोगते समय क्षण भर सुखद प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके भोग का परिणाम अत्यन्त शोचनीय होता है। दीर्घकाल पर्यन्त विविध प्रकार की व्यथाएँ सहन करती पड़ती हैं। अतएव साधक के लिए यही श्रेयस्कर है कि वह विषय-भोगों से बचे, उनकी छाया से भी दूर रहे।
यही इस अध्ययन का सार-अंश है।