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________________ पन्द्रहवां अध्ययन: नन्दीफल सार : संक्षेप प्रस्तुत अध्ययन का मूल स्वर अन्य अध्ययनों की भाँति साधना के क्षेत्र में अवतीर्ण होने वाले साधकों को, आपाततः रमणीय प्रतीत होने वाले एवं मन को लुभाने वाले इन्द्रिय-विषयों से सावधान रहने की सूचना देना ही है। यही वह मूल स्वर है जो प्रस्तुत आगम में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक गूंजता सुनाई देता है। किन्तु उस स्वर को सुबोध एवं सुगम बनाने के लिए जिन उदाहरणों की योजना की गई है, वे विभिन्न प्रकार के हैं। ऐसे ही उदाहरणों में से 'नन्दीफल' भी एक उदाहरण है। चम्पा नगरी का निवासी धन्य-सार्थवाह एक बड़ा व्यापारी है। उसने एक बार विक्रय के लिए माल लेकर अहिच्छत्रा नगरी जाने का विचार किया। उस समय के व्यापारी का स्वरूप एक प्रकार के समाजसेवक का था और उस समय का व्यापार समाज-सेवा का एक माध्यम भी था। यह तो सर्वविदित है कि प्रत्येक देश में प्रजा के लिए आवश्यक सभी वस्तुओं की उपज नहीं होती और न ऐसी कलाओं का ही प्रसार होता है कि प्रत्येक वस्तु का प्रत्येक देश में निर्माण हो सके। अतएव आयात और निर्यात के द्वारा सब जगह सब वस्तुओं की पूर्ति की जाती है। कोई वस्तु किसी देश-प्रदेश में इतनी प्रचुर मात्रा में होती है कि वहाँ की प्रजा उसका उपयोग नहीं कर पाती एवं उस उत्पादन का उसे उचित मूल्य नहीं मिलता। वहाँ वह व्यर्थ बन जाती है। उसी वस्तु के अभाव में दूसरे देश-प्रदेश के लोग बहुत कष्ट पाते हैं। आयात-निर्यात होने से दोनों ओर की यह समस्या सुलझ जाती है। उत्पादकों को उनके उत्पादन-श्रम का बदला मिल जाता है और अभाव वाले प्रदेश की आवश्यकतापूर्ति हो जाती है। इसी प्रकार के पारस्परिक आदान-प्रदान-विनिमय से आज भी संसार का काम चल रहा है। आयात-निर्यात का यह कार्य सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस अनिवार्य महत्त्व के काम के लिए एक पृथक् वर्ग की आवश्यकता होती है। यही वर्ग वणिक्वर्ग कहलाता है। इस प्रकार सैद्धान्तिक रूप से वणिक्वर्ग समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा करता है। इसी सेवा-कार्य में से वह अपने और अपने परिवार के निर्वाह के लिए भी कुछ लाभांश प्राप्त कर लेता है। यही व्यापार का मूल आदर्श है। इस भावना से प्रेरित होकर धन्य-सार्थवाह ने चम्पा नगरी का पण्य (माल) अहिच्छत्रा नगरी ले जाने का संकल्प किया। प्राचीन काल में वणिक्वर्ग के अन्तर्गत एक वर्ग सार्थवाहों का था। सार्थवाह वह बड़ा व्यापारी होता था जो अपने साथ अन्य अनेक लोगों को ले जाता था और उन्हें कुशलपूर्वक उनके गन्तव्य स्थानों तक पहुँचा देता था। इस विषय का विशद् विवेचन प्रकृत अध्ययन में ही किया गया है।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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