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[ज्ञाताधर्मकथा आसणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतित्ता आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी-'संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमागमणपओयणं!'
____ तत्पश्चात् तेतलिपुत्र घुड़सवारी से पीछे लौटा तो उसने अभ्यन्तर-स्थानीय (खानगी काम करने वाले) पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो! तुम जाओ और कलाद मूषिकारदारक की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला दारिका की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो।।
तब वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष तेतलिपुत्र के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए। दसों नखों को मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक पर अंगुलि करके 'तह त्ति' (बहुत अच्छा) स्वामिन्! कहकर विनयपूर्वक आदेश स्वीकार किया और उसके पास से रवाना होकर मूषिकारदारक कलाद के घर आये। मूषिकारदारक कलाद ने उन पुरुषों को आते देखा तो वह हृष्ट-तुष्ट हुआ, आसन से उठ खड़ा हुआ, सात-आठ कदम आगे गया, उसने आसन पर बैठने के लिए आमन्त्रण किया। जब वे आसन पर बैठे, स्वस्थ हुए और विश्राम ले चुके तो मूषिकारदारक ने पूछा-'देवानुप्रियो! आज्ञा दीजिये। आपके आने का क्या प्रयोजन है?'
९-तए णं ते अभितरट्टाणिज्जा पुरिसा कलायस्स मूसियारदारयस्स एवं वयांसी'अम्हे णं देवाणुप्पिया! तव धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए वरेमो, तं जइ णं जाणसि देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिजं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउणं पोट्टिला दारिया तेयलिपुत्तस्स, तो भण देवाणुप्पिया! किं दलामो सुक्कं?' ।
तब उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों ने कलाद मूषिकारदारक से इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रिय! हम तुम्हारी पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला दारिका की तेतलिपुत्र के पत्नी के रूप में मंगनी करते हैं। देवानुप्रिय! अगर तुम समझते हो कि यह सम्बन्ध उचित है, प्राप्त या पात्र है, प्रशंसनीय है, दोनों को संयोग सदृश है, तो तेतलिपुत्र को पोट्टिला दारिका प्रदान करो। प्रदान करते हो तो, देवानुप्रिय! कहो, इसके बदले क्या शुल्क (धन) दिया जाए?
विवेचन-तेतलिपुत्र राजा का मंत्री था। शासनसूत्र उसके हाथ में था। दूसरी ओर मूषिकारदारक एक सामान्य स्वर्णकार था। तेतलिपुत्र उसकी कन्या पर मुग्ध हो जाता है मगर मात्र उसे अपने भोग की सामग्री नहीं बनाना चाहता-पत्नी के रूप में वरण करने की इच्छा करता है। नियमानुसार उसकी मंगनी के लिए अपने सेवकों को उसके घर भेजता है। सेवक मूषिकारदारक के घर जाकर जिन शिष्टतापूर्ण शब्दों में पोट्टिला कन्या की मंगनी करते हैं, वे शब्द ध्यान देने योग्य हैं। राजमंत्री के सेवक न रौब दिखलाते हैं, न किसी प्रकार का दबाव डालते हैं, न धमकी देने का संकेत देते हैं। वे कलाद के समक्ष मात्र प्रस्ताव रखते हैं और निर्णय उसी पर छोड़ देते हैं। कहते हैं-'यह सम्बन्ध यदि तुम्हें उचित प्रतीत हो, तेतलिपुत्र को यदि इस कन्या के लिए योग्य पात्र मानते हो और दोनों का सम्बन्ध यदि श्लाघनीय और अनुकूल समझते हो तो तेतलिपुत्र को अपनी कन्या प्रदान करो।'
निश्चय ही सेवकों ने जो कुछ कहा, वह राजमंत्री के निर्देशानुसार ही कहा होगा। इस वर्णन से तत्कालीन शासकों की न्यायनिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। शुल्क देने का जो कथन किया गया है, वह उस समय की प्रचलित प्रथा थी। इसके सम्बन्ध में पहले लिखा जा चुका है।