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[ ज्ञाताधर्मकथा
जोर के आए तो सब लोग उसमें घुस गए और निर्भय हो गए। तात्पर्य यह है कि जैसे सब लोग उस शाला में समा गए, उसी प्रकार देव ऋद्धि देव के शरीर में समा गई।
६ - ददुरेण भंते! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी किण्णा लद्धा जाव [ किण्णा पत्ता ] अभिसमन्नागया ?
गौतस्वामी ने पुनः प्रश्न किया- भगवन् ! दर्दुरदेव ने वह दिव्य ऋद्धि किस प्रकार लब्ध की, किस प्रकार प्राप्त की ? किस प्रकार वह उसके समक्ष आई ?
दर्दुरदेव का पूर्व वृत्तान्त : नन्द मणिकार
७–‘एवं खलु गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नामं नयरे होत्था, गुणसीलए चेइए, तस्स णं रायगिहस्स सेणिए नामं राया होत्था । तत्थ णं रायगिहे णंदे णामं मणियारसेट्ठी परिवसइ, अड्ढे दित्ते जाव' अपरिभूए ।'
भगवान् उत्तर देते हैं-' गौतम ! इसी जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर था । गुणशील चैत्य था । श्रेणिक राजगृह नगर का राजा था। उस राजगृह नगर में नन्द नामक मणिकार (मणियार) सेठ रहता था। वह समृद्ध था, तेजस्वी था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था।' नन्द की धर्म प्राप्ति
८ - तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिए विराया निग्गए । तए णंदे से णंदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे ण्हाए पायचारेणं जाव पज्जुवासइ, णंदे धम्मं सोच्चा समणोवासए जाए। तए णं अहं रायगिहाओ पडिणिक्खंते बहिया जणवयविहारं विहरामि ।
गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील उद्यान में आया। परिषद् वन्दना करने के लिए निकली और श्रेणिक राजा भी निकला। तब नन्द मणियार सेठ इस कथा का अर्थ जान कर अर्थात् मेरे आगमन का वृत्तान्त ज्ञात कर स्नान करके विभूषित होकर पैदल चलता हुआ आया, यावत् मेरी उपासना करने लगा । फिर वह नन्द धर्म सुनकर श्रमणोपासक हो गया अर्थात् उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया। तत्पश्चात् मैं राजगृह से बाहर निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगा ।
नन्द की मिथ्यात्वप्राप्ति
९ - तणं से णंदे मणियारसेट्ठी अन्नया कयाई असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं परिहायमाणेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्ढमाणेहिं परिवड्ढमाणेहिं मिच्छत्तं विप्पडिवन्ने जाए यावि होत्था ।
तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी साधुओं का दर्शन न होने से, उनकी उपासना न करने से, उनका उपदेश न मिलने से और वीतराग के वचन सुनने की इच्छा न होने से, क्रमशः सम्यक्त्व के पर्यायों की धीरेधीरे हीनता होती चली जाने से और मिथ्यात्व के पर्यायों की क्रमशः वृद्धि होते रहने से, एक बार किसी समय मिथ्यात्वी हो गया।
१. अ. ५, सूत्र ६