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________________ तेरहवाँ अध्ययन : दर्दुरज्ञात] [३३७ नन्द का पुष्करिणी-निर्माण-मनोरथ १०-तए णं णंदे मणियारसेट्ठी अन्नया गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलंसि मासंसि अट्ठमभत्तं परिगेण्हइ, परिगेण्हित्ता पोसहसालाए जाव [ पोसहिए वंभयारी उम्मुक्कमणि-सुवण्णे ववगयमाला-वण्णग-विलेवणे निक्खित्तसत्थ-मुसले एगे अबीए दब्भसंथारोवगए] विहरइ। तए णं णंदस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि तण्हाए छुहाए य अभिभयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जिता-'धन्ना णंतेजाव [ईसरपभियओसंपुण्णाणं तेईसरपभियओ कयत्था णं ते ईसरपभियओ कयपुण्णा णं ते ईसरपभियओ कयलक्खणा णं ते ईसरपभियओ कयविभवा णं ते] ईसरपभियाओ जेसिं णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीओ पोक्खरणीओ जाव [दीहियाओ गुंजालियाओ सरपंतियाओ] सरसरपंतियाओ जत्थं णं बहुजणो हाइयपियइय पाणियंच संवहति।तंसेयं खलुममंकल्लंपाउप्पभायाए सेणियं रायं आपुच्छित्ता रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए वेभारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढगरोइतंसि भूमिभागंसि नंदं पोक्खरिणिं खणावेत्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ। तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने किसी समय ग्रीष्मऋतु के अवसर पर , ज्येष्ठ मास में अष्टम भक्त (तेला) अंगीकार किया। अंगीकार करके वह पौषधशाला में [ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि-स्वर्ण के आभूषणों को त्याग करके, माला, वर्णक, विलेपन का तथा आरंभ-समारम्भ का त्याग कर एकाकी अद्वितीय, दर्भ के संस्तारक पर आसीन होकर] विचरने लगा। तत्पश्चात् नन्द श्रेष्ठी का अष्टमभक्त जब परिणत हो रहा था-पूरा होने को था, तब प्यास और भूख से पीड़ित हुए उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'वे यावत् ईश्वर सार्थवाह आदि धन्य हैं, वे ईश्वर आदि पुण्यशाली हैं, वे ईश्वर आदि कृतार्थ हैं, उन ईश्वर आदि ने पुण्य उपार्जित किया है, वे ईश्वर आदि सुलक्षणसम्पन्न हैं, वे ईश्वर आदि वैभवशाली हैं, जिनकी राजगृह नगर से बाहर बहुत-सी बावड़ियाँ हैं, पुष्करिणियाँ हैं, यावत् [दीर्घिकाएँ-लम्बी बावड़ियाँ, गुंजालिकाएँ-कमल युक्त बावड़ियाँ हैं, सरोवर हैं] सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, जिनमें बहुतेरे लोग स्नान करते हैं, पानी पीते हैं और जिनसे पानी भर ले जाते हैं। तो मैं भी कल प्रभात होने पर श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर राजगृह नगर से बाहर, उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारपर्वत से कुछ समीप में, वास्तुशास्त्र के पाठकों से पसंद किये हुए भूमिभाग में नंदा पुष्कारिणी खुदवाऊँ, यह मेरे लिए उचित होगा।' नन्द श्रेष्ठी ने इस प्रकार विचार किया। राजाज्ञाप्राप्ति ११-एवं संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जाव [रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा चलंते] पोसहं पारेइ, पारित्ता ण्हाए कयबलिकम्मे मित्तणाइ जाव संपरिवुडे महत्थं जाव[महग्धं महरिहं रायारिहं ] पाहुडं गेण्हिइ गेण्हत्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव पाहुडं उवट्ठवेइ, उवदुवित्ता एवं वयासी-'इच्छामिणं सामी! तुब्भेहिं अब्भणुसन्नाए समाणे रायगिहस्स बहिया जाव खणावेत्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया।'
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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