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तेरहवाँ अध्ययन : द१रज्ञात]
[३३५ यह सब करके आभियोगिक देव वापिस लौट गये। सूर्याभ देव को आदेशानुसार कार्य सम्पन्न हो जाने की सूचना दी।
तब सूर्याभ देव ने पदात्यनीकाधिपति-अपनी पैदलसेना के अधिपतिदेवको बुलाकर आदेश दिया'सौधर्म विमान की सुधर्मा सभा में एक योजन के सुस्वर घंटे को तीन बार हिला हिलाकर घोषणा करो-सूर्याभ देव श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करने जा रहा है, तुम सब भी अपनी ऋद्धि के साथ, अपने-अपने विमानों में आरूढ़ होकर अविलम्ब उपस्थित होओ।' घोषणा सुनकर सभी देव प्रसन्नता के साथ उपस्थित हो गए।
तत्पश्चात् सूर्याभ देव ने आभियोगिक देवों को बुलवाकर एक दिव्य तीव्र गति वाले यान-विमान की विक्रिया करने की आज्ञा दी। उसने विमान तैयार कर दिया। मूलपाठ में उस विमान का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। उसे पढ़कर बड़े से बड़े शिल्पशास्त्री भी चकित-विस्मित हुए बिना नहीं रह सकते। संक्षेप में उसका वर्णन होना शक्य नहीं है विमान का विस्तार एक लाख योजन का था अर्थात् पूरे जम्बूद्वीप के बराबर
था।
सूर्याभ देव सपरिवार विमान में आरूढ़ होकर भगवान् के समक्ष उपस्थित हुआ। वन्दन-नमस्कार आदि करने के पश्चात् सूर्याभ देव ने भगवान् से अनेक प्रकार के नाटक दिखाने की अनुमति चाही। भगवान् मौन रहे। फिर भी देव ने भक्ति के उद्रेक में अनेक प्रकार के नाट्य प्रदर्शित किए तथा संगीत और नृत्य का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। ___ इस प्रकार भक्ति करके और धर्मदेशना सुन कर सूर्याभ देव अपने स्थान पर चला गया।
सूर्याभ देव संबन्धी यही वर्णन दर्दुर देव के लिए भी समझना चाहिए। मात्र सूर्याभ' नाम के स्थान पर 'दर्दुर' नाम कह लेना चाहिए। गौतमस्वामी की जिज्ञासा : भगवान् का उत्तर
५-'भंते' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'अहोणं भंते! दद्दुरे देवे महिड्डिए महज्जुइए महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभागे, ददुरस्स णं भंते! देवस्स या दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे कहिं गया? कहिं अणुपविट्ठा?'
'गोयमा! सरीरं गया, सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिटुंतो।'
'भगवन्!' इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन्! दर्दुर देव महान् ऋद्धिमान्, महाद्युतिमान्, महाबलवान्, महायशस्वी, महासुखवान् तथा महान् प्रभाववान् है, तो हे भगवन् ! दर्दुर देव की विक्रिया की हुई वह दिव्य देवऋद्धि कहाँ चली गई? कहाँ समा गई?'
भगवान् ने उत्तर दिया-"गौतम! वह देव-ऋद्धि शरीर में गई, शरीर में समा गई। इस विषय में कूटागार का दृष्टान्त समझना चाहिये।'
विवेचन-कूटागार (कूटाकार) शाला का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-एक कूट (शिखर) के आकार की शाला थी। वह बाहर से गुप्त थी, भीतर से लिपी-पुती थी। उसके चारों ओर कोट था। उसमें वायु का भी प्रवेश नहीं हो पाता था। उसके समीप बहुत बड़ा जनसमूह रहता था। एक बार मेघ और तूफान बहुत