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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात] [३२९ २५-तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा जेणेव चंपा णयरी जेणेव पुण्णभद्दचेइए तेणेव समोसढे जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ।सुबुद्धी धम्मं सोच्चा जंणवरं जियसत्तुं आपुच्छामि जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिया! __उस काल और उस समय में जहाँ चम्पा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ स्थविर मुनि पधारे। जितशत्रु राजा और सुबुद्धि उनको वन्दना करने के लिए निकले। सुबुद्धि ने धर्मोपदेश सुन कर (निवेदन किया-) मैं जितशत्रु राजा से पूछ लूँ-उनकी आज्ञा ले लूँ और फिर दीक्षा अंगीकार करूंगा। तब स्थविर मुनि ने कहा-'देवानुप्रिय! जैसे सुख उपजे वैसा करो।' २६-तए णं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-'एवं खलु सामी! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए इच्छिय-पडिच्छिए तएणं अहं सामी! संसारभउव्विग्गे, भीए जम्म-मरणाणं, इच्छामिणं तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे जाव पव्वइत्तए।' तएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-अच्छासुताव देवाणुप्पिया! कइवयाई वासाइं जाव भुंजमाणा तओ पच्छा एगयओ थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइस्सामो। • तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य जितशत्रु राजा के पास गया और बोला-'स्वामिन् ! मैंने स्थविर मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किया है और उस धर्म की मैंने पुनः इच्छा की है इस कारण हे स्वामिन् ! मैं संसार-अनादि काल से चली आ रही जन्म-मरण की निरन्तरता के भय से उद्विग्न हुआ हूँ तथा जरा-मरण से भयभीत हुआ हूँ। अतः आपकी आज्ञा पाकर स्थविरों के निकट प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ।' तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! अभी कुछ वर्षों तक यावत् भोग भोगते हुए ठहरो, उसके अनन्तर हम दोनों साथ-साथ स्थविर मुनियों के निकट मुंडित होकर प्रव्रज्या अंगीकार करेंगे। २७–तए णं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुस्स रण्णो एयमटुं पडिसुणेइ। तए णं तस्स जियसत्तुस्स रन्नो सुबुद्धिणा सद्धिं विपुलाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालस वासाई वीइक्कंताई। तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, तए णं जियसत्तू धम्म सोच्चा एवं जं नवरं देवाणुप्पिया! सुबुद्धिं आमंतेमि, जेट्ठपुत्तं रज्जे ठवेमि, तए णं तुब्भं जाव पव्वयामि। अहासुहं देवाणुप्पिया!' तए णं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे (तेणेव) उवागच्छइ,, उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खलु मए थेराणं जाव पव्वज्जामि, तुमंणं किं करेसि?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी-'जाव के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामि।' तब सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् सुबुद्धि प्रधान के साथ जितशत्रु राजा को मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये। तत्पश्चात् उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ। तब जितशत्रु ने धर्मोपदेश
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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