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[ ज्ञाताधर्मकथा
सुन कर प्रतिबोध पाया, किन्तु उसने कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं सुबुद्धि अमात्य को दीक्षा के लिए आमंत्रित करता हूँ और ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर स्थापित करता हूँ। तदनन्तर आपके निकट दीक्षा अंगीकार करूँगा ।' तब स्थविर मुनि ने कहा - 'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वही करो।'
तब जितशत्रु राजा अपने घर आया। आकर सुबुद्धि को बुलवाया और कहा-'मैंने स्थविर भगवान् से धर्मोपदेश श्रवण किया है यावत् मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा करता हूँ। तुम क्या करोगे - तुम्हारी क्या इच्छा है ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा - ' यावत् आपके सिवाय मेरा दूसरा कौन आधार है ? यावत् मैं भी संसार - भय से उद्विग्न हूँ, मैं भी प्रव्रज्या अंगीकार करूँगा ।'
२८ - तं जइ णं देवाणुप्पिया! जाव पव्वयह, गच्छह णं देवाणुप्पिया! जेट्ठपुत्तं च कुडुंबे ठावेहि, ठावेत्ता सीयं दुरूहित्ता णं ममं अंतिए जाव पाउब्भवेह । तए णं सुबुद्धी अमच्चे सीयं जाव पाउब्भवइ ।
तणं. जियसत्तु कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह ।' जाव अभिसिंचंति, जाव पव्वइए । राजा जितशत्रु ने कहा- देवानुप्रिय ! यदि तुम्हें प्रव्रज्या अंगीकार करनी है तो जाओ देवानुप्रिय ! और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो और शिविका पर आरूढ़ होकर मेरे समीप प्रकट होओ-आओ । तब सुबुद्धि अमात्य शिविका पर आरूढ़ होकर यावत् राजा के समीप आ गया।
तत्पश्चात् जितशत्रु ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा जाओ देवानुप्रियो ! अदीनशत्रु कुमार के राज्याभिषेक की सामग्री उपस्थित - तैयार करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने सामग्री तैयार की, यावत् कुमार का अभिषेक किया, यावत् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के साथ प्रव्रज्या अंगीकार कर ली । २९ - तए णं जियसत्तू एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि परियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सिद्धे ।
तणं सुबुद्धी एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि परियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सिद्धे ।
दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् जितशत्रु मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पाल कर अन्त में एक मास की संलेखना करके सिद्धि प्राप्त की।
दीक्षा अंगीकार करने के अनन्तर सुबुद्धि मुनि ने भी ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पाली और अंत में एक मास की संलेखना करके सिद्धि पाई।
३० - एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठ पन्नत्ते, त्ति बेमि ।
श्री सुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी से कहते हैं - इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह (उपर्युक्त) अर्थ कहा है। मैंने जैसा सुना वैसा कहा।
॥ बारहवाँ अध्ययन समाप्त ॥