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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात ] है और ये चारों गुण केवल पुद्गल में ही होते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं । यहाँ एक तथ्य और ध्यान में रखने योग्य है। वह यह कि प्रत्येक द्रव्य का गुण भी द्रव्य की ही तरह नित्य - अविनाशी है, परन्तु उन गुणों के पर्याय, द्रव्य के पर्यायों की भाँति परिणमनशील हैं। वर्ण पुद्गल का गुण है। उसका कभी विनाश नहीं होता। काला, पीला, हरा, नीला और श्वेत, वर्ण-गुण के पर्याय हैं। इनमें परिवर्तन होता रहता है। गंध गुण स्थायी है, सुगन्ध और दुर्गन्ध उसके पर्याय हैं। अतएव गंध नित्य और उसके पर्याय अनित्य हैं। इसी प्रकार रस और स्पर्श के संबन्ध में समझ लेना चाहिये । परिणमन की यह धारा निरन्तर, 'क्षण-क्षण, पल-पल, प्रत्येक समय, प्रवाहित होती रहती है, किन्तु सूक्ष्म परिणमन हमारी दृष्टि में नहीं आता। जब परिणमन स्थूल होता है तभी हम उसे जान पाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई शिशु पल-पल में वृद्धिंगत होता रहता है किन्तु उसकी वृद्धि का अनुभव हमें तभी होता है जब वह स्थूल रूप धारण करती है। [ ३२७ सुबुद्धि प्रधान ने राजा जितशत्रु के समक्ष यही तत्त्व रक्खा। इस तत्त्व का प्रतिपादन जिनागम में ही किया गया है, अन्यत्र नहीं। जितशत्रु के पूछने पर सुबुद्धि ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है। २२ - तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी -' इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवणं निसामेत्तए । ' तणं सुबुद्धीजियसत्तुस्स विचित्तं केवलिपन्नतं चाउज्जामं धम्मं परिकहेइ, तमाइक्खड़, जहा जीवा बज्झंति जाव पंच अणुव्वयाई । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि से कहा- ' - 'देवानुप्रिय ! तो मैं तुमसे जिनवचन सुनना चाहता हूँ।' तब सुबुद्धि मंत्री ने जितशत्रु राजा को केवली -भाषित चातुर्याम रूप अद्भुत धर्म कहा । जिस प्रकार जीव कर्म-बंध करते हैं, यावत् पाँच अणुव्रत हैं, इत्यादि धर्म का कथन किया। २३ – तए णं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी – ' सद्दहामि णं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वयह, तं इच्छामि तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं जाव उवसंपज्जिता णं विहरित्तए । ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह ।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से धर्म सुनकर और मन में धारण करके, हर्षित और संतुष्ट होकर सुबुद्धि अमात्य से कहा - 'देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है। सो मैं तुमसे पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को यावत् ग्रहण करके विचरने की अभिलाषा करता हूँ । ' (तब सुबुद्धि प्रधान ने कहा-) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो, प्रतिबंध मत करो।' २४ - तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जइ । तए णं जियसत्तू समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे [ जाव उबलद्धपुण्णपावे आसव-संवर- निज्जर-किरिया - अहिगरण-बंध - मोक्खकुसले असहेज्जे देवासुरनाग-जक्ख- रक्खस- किण्णर- किंपुरिस- गरुल- गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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