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[ ज्ञाताधर्मकथा
तब जितशत्रु राजा ने उस उदकरत्न को हथेली में लेकर आस्वादन किया । उसे आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को आह्लादकारी जानकर सुबुद्धि अमात्य को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा—'सुबुद्धि ! तुमने ये सत्, तथ्य, अवितथ तथा सद्भूत भाव (पदार्थ) कहाँ से जाने ?'
तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा - 'स्वामिन्! मैंने यह सत् यावत् सद्भूत भाव जिन भगवान् के वचन से जाने हैं।'
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विवेचन - जैनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो केवल द्रव्य स्वरूप हो और पर्याय उसमें न हों। ऐसी भी कोई वस्तु नहीं जो एकान्त पर्यायमय हो, द्रव्य न हो । जीव द्रव्य हो किन्तु सिद्ध, देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारक पर्याय में से कोई भी न हो, यह असंभव है। इसी प्रकार देवादि कोई पर्याय तो हो किन्तु जीवद्रव्य उसके साथ न हो, यह भी असंभव है । सार यह है कि प्रत्येक वस्तु में द्रव्य और पर्यायदोनों अंश अवश्य ही विद्यमान होते हैं।
जब द्रव्य-अंश को प्रधान और पर्याय- अंश को गौण करके वस्तु का विचार किया जाता है तो उसे जैनपरिभाषा के अनुसार द्रव्यार्थिकनय कहते हैं और जब पर्याय को प्रधान और द्रव्य को गौण करके देखा जाता है तब वह दृष्टि पर्यायार्थिकनय कहलाती है। दोनों दृष्टियाँ जब अन्योन्यापेक्ष होती हैं तभी वे समीचीन कही जाती हैं।
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वस्तु का द्रव्यांश नित्य, शाश्वत, अवस्थित रहता है, उसका न तो कभी विनाश होता है न उत्पाद। अतएव द्रव्यांश की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन, ध्रुव ही है। मगर पर्याय नाशशील होने से क्षण-क्षण में उनका उत्पाद और विनाश होता रहता है। इसी कारण प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यमय है । भगवान् ने अपने शिष्यों को यही मूल तत्त्व सिखाया था
उप्पन्ने वा, विगमेवा, धुवेइ वा ।
प्रस्तुत सूत्र में पुद्गलों को परिणमनशील कहा गया है, वह पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से समझना
चाहिए ।
प्रश्न हो सकता है कि जब सभी पदार्थ - द्रव्य परिणमनशील हैं तो यहाँ विशेष रूप से पुद्गलों का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है - परिणमन तो सभी में होता है किन्तु अन्य द्रव्यों के परिणमन से पुद्गल के परिणमन में कुछ विशिष्टता है। पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में संयोग-वियोग होता है, अर्थात् पुद्गल का एक स्कंध (पिंड) टूटकर दो भागों में विभक्त हो जाता है, दो पिण्ड मिलकर एक पिण्ड बन जाता है, पिण्ड में से एक परमाणु - उसका निरंश अंश पृथक् हो सकता है। वह कभी-कभी पिण्ड में मिलकर स्कंध रूप धारण कर सकता है। इस प्रकार पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में हीनाधिकता, मिलना-बिछुड़ना होता रहता है। किन्तु पुद्गल के सिवाय शेष द्रव्यों में इस प्रकार का परिणमन नहीं होता। जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों में न न्यूनाधिकता होती है, न संयोग या वियोग होता है। उनके प्रदेश जितने हैं, उतने ही सदा काल अवस्थित रहते हैं। अन्य द्रव्यों के परिणमन से पुद्गल के परिणमन की इसी विशिष्टता के कारण संभवतः यहाँ पुद्गलों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया।
दूसरा कारण यह हो सकता है कि प्रस्तुत में वर्ण गंध, रस और स्पर्श के संबन्ध में कथन किया गया