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________________ बारहवाँ अध्ययन : उदकज्ञात] [३२५ तुमने यह जलरत्न कहाँ पर प्राप्त किया?' तब जलगृह के कर्मचारी ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह जलरत्न मैंने सुबुद्धि अमात्य के पास से प्राप्त किया है।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य को बुलाया और उससे इस प्रकार कहा-'अहो सुबुद्धि! किस कारण से तुम्हें मैं अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम हूँ, जिससे तुम मेरे लिए प्रतिदिन भोजन के समय यह उदकरत्न नहीं भेजते? देवानुप्रिय ! तुमने यह उदकरत्न कहाँ से पाया है ?' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है।' तब जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा-'हे सुबुद्धि ! किस प्रकार यह वही खाई का पानी है?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! उस समय अर्थात् खाई के पानी का वर्णन करते समय मैंने आपको पुद्गलों का परिणमन कहा था, परन्तु आपने उस पर श्रद्धा नहीं की थी। तब मेरे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, विचार या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-अहो! जितशत्रु राजा सत् यावत् भावों पर श्रद्धा नहीं करते, प्रतीति नहीं करते, रुचि नहीं रखते, अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि जितशत्रु राजा को सत् यावत् सद्भूत जिनभाषित भावों को समझाकर पुद्गलों के परिणमन रूप अर्थ को अंगीकार कराऊँ। मैंने ऐसा विचार किया। विचार करके पहले कहे अनुसार पानी को संवार कर तैयार किया। यावत् आपके जलगृह के कर्मचारी को बुलाया और उसे कहा-देवानुप्रिय ! यह उदकरत्न तुम भोजन की वेला राजा जितशत्रु को देना। इस कारण हे स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है।' २१-तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमझें नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोयमाणे अभितरट्ठाणिजे पुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अंतरावणाओ नवघडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभाणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह।' ते वि तहेव संभारेंति, संभारित्ता जियसत्तुस्स उवणेति। तएणं जियसत्तू राया तं उदगरयणं करतलंसि आसाएइ, आसायणिज्जं जाव सव्विंदियगायपल्हाणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-'सुबुद्धी ! एए णं तुमे संता तच्चा जाव' सब्भूआ भावा कओ उवलद्धा?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी-एए णं सामी! मए संता जाव' भावा जिणवयणाओ उवलद्धा।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के पूर्वोक्त अर्थ पर श्रद्धा न की, प्रतीति न की और रुचि न की। श्रद्धा न करते हुए, प्रतीति न करते हुए और रुचि न करते हुए उसने अपनी अभ्यन्तर परिषद् के पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और खाई के जल के रास्ते वाली कुंभार की दुकान से नये घड़े तथा वस्त्र लाओ और यावत् जल को संवारने-सुन्दर बनाने वाले द्रव्यों से उस जल को सँवारो।' उन पुरुषों ने राजा के कथनानुसार पूर्वोक्त विधि से जल को सँवारा और सँवार कर वे जितशत्रु के समीप लाए। १-२. १२ वाँ अ., १५.
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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