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________________ ३२४] [ज्ञाताधर्मकथा गिण्हाइ, गिण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ। तएणं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे जाव विहरइ। जिमियभुत्तुत्तराए णं जाव परमसुइभूए तंसि उदयरयणे जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव एवं वयासी-'अहो णं देवाणुप्पिया ! इमे उदयरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे।' __तए णं बहवे राईसर जाव एवं वयासी-'तहेवणं सामी ! जंणं तुब्भे वयह, जाव एवं चेव पल्हायणिज्जे।' तत्पश्चात् जलगृह के उस कर्मचारी ने सुबुद्धि के इस अर्थ को अंगीकार किया। अंगीकार करके वह उदकरत्न ग्रहण किया और ग्रहण करके जितशत्रु राजा के भोजन की वेला में उपस्थित किया। तत्पश्चात् जितशत्रु राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आस्वादन करता हुआ विचर रहा था। जीम चुकने के अनन्तर अत्यन्त शुचि-स्वच्छ होकर जलरत्न का पान करने से राजा को विस्मय हुआ। उसने बहुत-से राजा, ईश्वर आदि से यावत् कहा-'अहो देवानुप्रियो! यह उदकरत्न स्वच्छ है यावत् समस्त इन्द्रियों को और गात्र को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है।' ___तब वे बहुत-से राजा, ईश्वर आदि यावत् इस प्रकार कहने लगे-'स्वामिन् ! जैसा आप कहते हैं, बात ऐसी ही है। यह जलरत्न यावत् आह्लादजनक है।' ___२०–तए णं जियसत्तू राया पाणियघरियं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी–'एस णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! उदयरयणे कओ आसाइए?' तए णं पाणियघरिए जियसत्तुं एवं वयासी-'एस णं सामी! मए उदयरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसाइए। तएणं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दवित्ता एवं वयासी-'अहोणं सुबुद्धी! केणं कारणेणं अहं तव अणिट्टे अकंते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे, जेण तुमं मम कल्लाकल्लि भोयणवेलाए इमं उदयरयणं न उवट्ठवेसि? तए णं देवाणुप्पिया ! उदयरयणे कओ उवलद्धे ? तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी-'एस णं सामी! से फरिहोदए।' तएणं से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-'केणं कारणेणं सुबुद्धी! एस से फरिहोदए?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी-एवं खलु सामी! तुम्हे तया मम एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमटुं नो सहहह, तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-'अहो णं जियसत्तू संते जाव भावे नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, तं सेयं खलु ममं जियसत्तुस्स रण्णो संताणं जाव सब्भूयाणं जिणपन्नत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमटुं उवाइणावेत्तए। एवं संपेहेमि, संपेहित्ता तं चेव जाव पाणियपरियं सद्दावेमि, अभिगमणट्ठयाए एयमढें उवाइणावेत्तए। एवं संपेहेमि, संपेहित्ता तं चेव जाव पाणियपरियं सदावेमि, सद्दावित्ता एवं वदामि–'तुमं णं देवाणुप्पिया ! उदगरयणं जियसत्तुस्स रन्नो भोयणवेलाए उवणेहि।' तं एएणं कारणेणं सामी! एस से फरिहोदए।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया और बुलवाकर पूछा-'देवानुप्रिय!
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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