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________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] [ २९९ उस समय वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी के इस कथन को सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत नहीं हुए, त्रास को प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए। अतएव उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया, उसकी परवाह नहीं की। वे आदर न करते हुए शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर चले जाने लगे। विवेचन-शैलक यक्ष ने माकंदीपुत्रों को पहले ही समझा दिया था कि रत्नदेवी के कठोर-कोमल वचनों, उसकी धमकियों या ललचाने वाली बातों पर ध्यान न देना, परवाह न करना अतएव वे उसकी धमकी सुनकर भी निर्भय रहे । ४६ – तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदिया जाहे नो संचाएइ बहूहिं पडिलोमेहि य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तए वा ताहे महुरेहि सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गेउं पयत्ता यावि होत्था 'हं भो मागंदियदारगा! जइ णं तुब्भेहिं देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य, रमियाणि , ललियाणिय, कीलियाणि य, हिंडियाणिय, मोहियाणि य, ताहे णं तुब्भे सव्वाइं अगणेमाणा ममं विप्पहाय सेलणं सद्धिं लवणसमुहं मज्झंमज्झेणं वीइवयह ?' तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जब उन माकंदीपुत्रों को बहुत-से प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा चलित करने, क्षुब्ध करने, पलटने और लुभाने में समर्थ न हुई, तब मधुर शृंगारमय और अनुराग-जनक अनुकूल उपसर्गों से उन पर उपसर्ग करने में प्रवृत्त हुई । ! देवी कहने लगी- 'हे माकंदीपुत्रो ! हे देवानुप्रियो ! तुमने मेरे साथ हास्य किया है, चौपड़ आदि खेल खेले हैं, मनोवांछित क्रीड़ा की है, क्रीड़ित - झूला आदि झूल कर मनोरंजन किया है, उद्यान आदि में भ्रमण किया है और रतिक्रीड़ा की है। इन सबको कुछ भी न गिनते हुए, मुझे छोड़कर तुम शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हो ?' ४७ 9 - तए णं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी– 'णिच्चं पि य णं अहं जिनपालियस्स अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, अमणुण्णा, अमणामा, णिच्चं मम जिणपालिए अणिट्टे अकंते, अप्पिए, अमणुण्णे, अमणामे । णिच्वंपियणं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा, कंता, पिया, मणुण्णा, मणामा, णिच्चं पिय णं ममं जिणरक्खिए इट्ठे कंते, पिए, मणुण्णे, मणामे । जइ णं ममं जिणपालिए रोयमाणिं कंदमाणिं सोयमाणिं तिप्पमाणिं विलवमाणिं णावयक्खड़, किं णं तुमं जिणरक्खिया ! ममं रोयमाणि जाव णावयक्खसि ?' तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने जिनरक्षित का मन अवधिज्ञान से (कुछ शिथिल) देखा। यह देखकर वह इस प्रकार कहने लगी- मैं सदैव जिनपालित के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम थी और जिनपालित मेरे लिए अनिष्ट, अकान्त आदि था, परन्तु जिनरक्षित को तो मैं सदैव इष्ट, कान्त, प्रिय आदि थी और निरक्षित मुझे भी इष्ट, कान्त, प्रिय आदि था । अतएव जिनपालित यदि रोती, आक्रन्दन करती, शोक करती, अनुताप करती और विलाप करती हुई मेरी परवाह नहीं करता, तो हे जिनरक्षित ! तुम भी मुझ रोती हुई की यावत् परवाह नहीं करते ?"
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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