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________________ ३०० ] ४८ - तए णं सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा उ जिनरक्खियस्स मणं । नाऊण वधनिमित्तं उवरि मागंदियदारयाणं दोन्हं पि ॥ १॥ तत्पश्चात् — उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर दोनों माकंदीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त (कपट से इस प्रकार बोली) ४९ - दोसकलिया सलीलयं, णाणाविहचुण्णवासमीसियं दिव्वं । घणमणणिव्वुइकरं सव्वोउयंसुरभिकुसुमवुद्धिं पहुंचमाणी ॥ २ ॥ द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित विविध प्रकार के चूर्णवास मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देने वाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगंधित फूलों की वृष्टि करती हुई (बोली) ॥ २ ॥ ५० - णाणामणि - कणग-रयण- घंटिय- खिखिणि णेउर- मेहल - भूसणरवेणं । दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेति सा सकलुसा ॥ ३॥ नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, घुंघरुओं, नूपुरों और मेखला - इन सब आभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिन देवी इस प्रकार कहने लगी ॥ ३ ॥ ५१ - होल वसुल गोल णाह दइत, पिय रमण कंत सामिय णिग्घण णित्थक्क | [ ज्ञाताधर्मकथा छिण्ण निक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख, अकलुण जिणरक्खिय ! मज्झं हिययरक्खगा ॥ ४ ॥ 'हे होल! वसुल, गोल' हे नाथ! हे दयित (प्यारे !) हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त (मनोहर ) ! हे स्वामिन् (अधिपति) ! हे निर्घृण ! (मुझ स्नेहवती का त्याग करने के कारण निर्दय !) हे नित्थक्क (अकस्मात् मेरा परित्याग करने के कारण अवसर को न जानने वाले) ! हे स्त्यान (मेरे हार्दिक राग से भी तेरा हृदय आर्द्र हुआ, अतएव कठोर हृदय) ! हे निष्कृप (दयाहीन) ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव (अकस्मात् मेरा त्याग कर देने के कारण ढीले मन वाले ) ! निर्लज्ज ( मुझे स्वीकार करके त्याग देने के कारण लज्जाहीन ) ! हे रूक्ष (स्नेहहीन हृदय वाले) ! हे अकरुण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक (वियोग व्यथा से फटते हुए हृदय को फिर अंगीकार करके बचाने वाले) !' ॥ ४ ॥ ५२ - न हु जुज्जसि एक्कियं अणाहं, अबंधवं तुज्झ चलणओवायकारयं उज्झिउमहणणं । गुणसंकर! अहं तुमे विहूणा, ण समत्था वि जीविउं खणं पि ॥ ५ ॥ 'मुझ अकेली, अनाथ, बान्धवहीन, तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाली और अधन्या ( हतभागिनी) को त्याग देना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है। हे गुणों के समूह ! तुम्हारे बिना मैं क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ ॥ ५ ॥ १. इन तीन शब्दों का निन्दा-स्तुति गर्भित अर्थ होता है।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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