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________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] [ २८१ जिनपालित और जिनरक्षित का यान उस आँधी में फंस गया। उस विकट संकट के समय यान की जो दशा हुई उसका अत्यन्त करुणाजनक और साथ ही आलंकारिक काव्यमय वर्णन मूल पाठ में किया गया है। ऐसे वर्णन आगमों में क्वचित् ही उपलब्ध होते हैं। यान छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया। व्यापार के लिए जो माल भरा गया था, वह सागर के गर्भ में समा गया। दोनों भाई निराधार और निरवलम्ब हो गए। उन्होंने जीवन की आशा त्याग दी। उस समय मातापिता की बात न मानने और अपने हठ पर कायम रहने के लिए उन्हें कितना पश्चात्ताप हुआ होगा, यह अनुमान करना कठिन नहीं । संयोगवश उन्हें अपने यान का एक पटिया हाथ लग गया। उसके सहारे तिरते - तिरते वे समुद्र के किनारे जा लगे । जिस प्रदेश में वे किनारे लगे वह प्रदेश रत्नद्वीप था । इस द्वीप के मध्यभाग में रत्न देवता नामक एक देवता - देवी निवास करती थी। उसका एक अत्यन्त सुन्दर महल था, जिसकी चारों दिशाओं में चार वनखण्ड थे। रत्नदेवी ने अवधिज्ञान से माकंदीपुत्रों को विपद्ग्रस्त अवस्था में समुद्रतट पर देखा और तत्काल उनके पास आ पहुँची। बोली - यदि तुम दोनों जीवित रहना चाहते हो तो मेरे साथ चलो और मेरे साथ विपुल भोग भोगते हुए आनन्दपूर्वक रहो। अगर मेरी बात नहीं मानते - भोग भोगना स्वीकार नहीं करते तो इस तलवार से तुम्हारे मस्तक काट कर फेंक देती हूँ। बेचारे माकन्दीपुत्रों के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं था । उन्होंने देवी की बात मान्य कर ली। उसके प्रासाद में चले गए और उसकी इच्छा तृप्त करने लगे । इन्द्र के आदेश से सुस्थित देव ने रत्नदेवी को लवणसमुद्र की सफाई के लिए नियुक्त कर रखा था। सफाई के लिए जाते समय उसने माकंदीपुत्रों को तीन दिशाओं में स्थित तीन वनखण्डों में जाने एवं घूमने का परामर्श दिया किन्तु दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का निषेध किया। कहा - उसमें एक अत्यन्त भयंकर सर्प रहता है, वहाँ गए तो प्राणों से हाथ धो बैठोगे । एक बार दोनों भाइयों के मन में आया - देखें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में क्या है ? देवी ने क्यों वहाँ जाने को मना किया है ? और वे उस ओर चल पड़े। वहाँ जाने पर उन्होंने एक पुरुष को शूली पर चढ़ा देखा। पूछने पर पता लगा कि वह भी उन्हीं की तरह देवी के चक्कर में फंस गया था और किसी सामान्य अपराध के कारण देवी ने उसे शूली पर चढ़ा दिया है। उसकी करुण कहानी सुनकर माकंदीपुत्रों का हृदय कांप उठा । अपने भविष्य की कल्पना से वे बेचैन हो गए। तब उन्होंने उस पुरुष से अपने छुटकारे का उपाय पूछा। उपाय उसने बतला दिया । पूर्व के वनखण्ड में अश्वरूपधारी शैलक नामक यक्ष रहता था। अष्टमी आदि तिथियों के दिन, एक निश्चित समय पर, वह बुलन्द आवाज में घोषणा किया करता था - 'कं तारयामि, कं पालयामि ।' अर्थात् किसे तारूं, किसे पालूं ? एक दिन दोनों भाई वहाँ जा पहुँचे और उन्होंने अपने को तारने और पालने की प्रार्थना की।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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