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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
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मल्ली अरहन्त एक सौ वर्ष गृहवास में रहे। सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष केवली-पर्याय पालकर, इस प्रकार कुल पचपन हजार वर्ष की आयु भोग कर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास, दूसरे पक्ष अर्थात्
चैत्र मास के शुक्लपक्ष और चैत्र मास के शुक्लपक्ष की चौथ तिथि में, भरणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, अर्द्धरात्रि के समय, आभ्यन्तर परिषद् की पाँच सौ साध्वियों और बाह्य परिषद् के पाँच सौ साधुओं के साथ, निर्जल एक मास के अनशनपूर्वक दोनों हाथ लम्बे रखकर, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाति कर्मों के क्षीण होने पर सिद्ध हुए। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णित निर्वाणमहोत्सव यहाँ भी कहना चाहिए। फिर देवों ने नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव किया। महोत्सव करके अपने-अपने स्थान पर चले गये।
विवेचन-टीकाकार द्वारा वर्णित निर्वाणकल्याणक का महोत्सव संक्षेप में इस प्रकार है
जिस समय तीर्थंकर भगवान् का निर्वाण हुआ तो शक्र देवेन्द्र का आसन चलायमान हुआ। अवधिज्ञान का उपयोग लगाने से उसे निर्वाण की घटना का ज्ञान हुआ। उस समय वह सपरिवार सम्मेदशिखर पर्वत पर आया। भगवान् के निर्वाण के कारण उसे खेद हुआ। आँखों से आँसू बहने लगे। उसने भगवान् के शरीर की तीन प्रदक्षिणाएँ कीं। फिर उस शरीर से थोड़ी दूर ठहर गया। इसी प्रकार सब इन्द्रों ने किया।
तत्पश्चात् शक्रेन्द्र ने अपने आभियोगिक देवों से वन में से सुन्दर गोशीर्ष चन्दन के काष्ठ मंगवाये। तीन चिताएँ रची गईं। क्षीरसागर से जल मँगवाया गया। उस जल से भगवान् को स्नान कराया गया। हंस जैसा धवल और कोमल वस्त्र शरीर पर ढंक दिया। फिर शरीर को सर्व अलंकारों से अलंकृत किया गया।
गणधरों और साधुओं के शरीर का अन्य देवों ने इसी प्रकार संस्कार किया।
तत्पश्चात शक्र इन्द्र ने आभियोगिक देवों से तीन शिविकाएँ बनवाईं। उनमें से एक शिविका पर भगवान् का शरीर स्थापित किया और उसे चिता के समीप ले जाकर चिता पर रखा। अन्य देवों ने गणधरों और साधुओं के शरीर को दो शिविकाओं में रखकर दो चिताओं पर रखा। तत्पश्चात् अग्निकुमार देवों ने शक्रेन्द्र की आज्ञा से तीनों चिताओं में अग्निकाय की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने वायु की विकुर्वणा की। अन्य देवों ने तीनों चिताओं में अगर, लोबान, धूप, घी और मधु आदि के घड़े के घड़े डाले। अन्त में जब शरीर भस्म हो चुके, तब मेघकुमार देवों ने उन चिताओं को क्षीरसागर के जल में शान्त कर दिया।
तत्पश्चात् शक्रेन्द्र ने प्रभु के शरीर की दाहिनी तरफ की ऊपर की दाढ़ ग्रहण की। ईशानेन्द्र ने बाँयी ओर की ऊपर की दाढ़ ली। चमरेन्द्र ने दाहिनी ओर की नीचे की और बलीन्द्र ने बाँयी ओर की नीचे की दाढ़ ग्रहण की। अन्य देवों ने अन्यान्य अंगोपांगों की अस्थियाँ ले लीं। तत्पश्चात् तीनों चिताओं के स्थान पर बड़ेबड़े स्तूप बनाये और निर्वाणमहोत्सव किया।
सब तीर्थंकरों के निर्वाण का अंतिम संस्कार-वर्णन इसी प्रकार समझना चाहिये।
१९६-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि।
श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं-इस प्रकार निश्चय ही, हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने आठवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है। मैंने जो सुना, वही कहता हूँ।
॥ आठवाँ अध्ययन समाप्त ॥