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________________ २७२] [ज्ञाताधर्मकथा न होने पर भी लोकान्तिक देव अपना परम्परागत आचार समझ कर आते हैं। उनका प्रतिबोध करना वस्तुतः तीर्थंकर भगवान् के वैराग्य की सराहना करना मात्र है। यही कारण है तीर्थंकर का दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प पहले होता है, लोकान्तिक देव बाद में आते हैं। तीर्थंकर के संकल्प के कारण देवों का आसन चलायमान होना अब आश्चर्यजनक घटना नहीं रहा है। परामनोविज्ञान के अनुसार, आज वैज्ञानिक विकास के युग में यह घटना सुसम्भव है। इससे तीर्थंकर के अत्यन्त सुदृढ़ एवं तीव्रतर संकल्प का अनुमान किया जा सकता है। १६६-तएणं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल'-'इच्छामिणं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुंडे भवित्ता जाव (अगाराओ अणगारियं) पव्वइत्तए।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।' तत्पश्चात् लोकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधित हुए मल्ली अरहन्त माता-पिता के पास आये। आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहा-“हे माता-पिता! आपकी आज्ञा प्राप्त करके मुंडित होकर गृहत्याग करके अनगार-प्रव्रज्या ग्रहण करने की मेरी इच्छा है।' । तब माता-पिता ने कहा-'हे देवानुप्रिय! जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबन्ध-विलम्ब मत करो। . १६७–तए णं कुंभए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवण्णिरयाणं जाव अट्ठासहस्साणं भोमेजाणं कलसाणं ति।अण्णं च महत्थं जाव (महग्धं महरिहं विउलं) तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह।' जाव उवट्ठति। ___ तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहा-'शीघ्र ही एक हजार आठ सुवर्णकलश यावत् [एक हजार आठ रजत-कलश, इतने ही स्वर्ण-रजतमय कलश, मणिमय कलश, स्वर्णमणिमय कलश, रजत-मणिमय कलश और ] एक हजार आठ मिट्टी के कलश लाओ। उसके अतिरिक्त महान् अर्थ वाली यावत् [महान् मूल्य वाली, महान् जनों के योग्य और विपुल] तीर्थंकर के अभिषेक की सब सामग्री उपस्थित करो।'-यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया, अर्थात् अभिषेक की समस्त सामग्री तैयार कर दी। १६८-तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया। उस काल और उस समय चमर नामक असुरेन्द्र से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के सभी इन्द्र अर्थात् चौंसठ इन्द्र वहाँ आ पहुँचे। १६९-तएणं सक्के देविंदे देवराया आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी'खिप्पामेव अट्ठसहस्संसोवणियाणं कलसाणंजाव अण्णंचतं विउलं उवट्ठवेह।'जाव उवट्ठति। तेवि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा। तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'शीघ्र १. प्र. अ. सूत्र १८
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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