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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२७१ शब्दों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विचर रहे थे। उन लोकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार हैं-(१) सारस्वत (२) वह्नि (३) आदित्य (४) वरुण (५) गर्दतोय (६) तुषित (७) अव्याबाध (८) आग्नेय (९) रिष्ट ।
१६४-तए णं तेसिं लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, तहेव जाव 'अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्तए त्ति तंगच्छामोणं अम्हे विमल्लिस्स अरहओसंबोहणं करेमो।'त्ति कटु एवं संपेहेंति, संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमंदिसीभायं वेउव्वियसमुग्घाएणंसमोहणंति, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई एवं जहाजंभगा जाव' जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रणोभवणे, जेणेव मल्ली अरहा, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवन्ना सखिंखिणियाइंजाव['दसद्धवण्णाइं]वत्थाइं पवरपरिहिया करयाल ताहिंइटाहिंजाव एवं वयासी
तत्पश्चात् उन लोकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हुए-इत्यादि उसी प्रकार जानना अर्थात आसन चलित होने पर उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर मल्ली अर्हत के प्रव्रज्या के संकल्प को जाना। फिर विचार किया कि-दीक्षा लेने की इच्छा करने वाले तीर्थंकरों को सम्बोधन करना हमारा आचार है, अतः हम जाएँ और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें, ऐसा लोकान्तिक देवों ने विचार किया। विचार करके उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्घात से विक्रिया की-उत्तर वैक्रिय शरीर धारण किया। समुद्घात करके संख्यात योजन उल्लंघन करके, मुंभक देवों की तरह जहाँ मिथिला राजधानी थी, जहाँ कुम्भ राजा का भवन था और जहाँ मल्ली नामक अर्हत् थे, वहाँ आये। आकर के-अधर में स्थित रह कर धुंघरुओं के शब्द सहित यावत् [पाँच वर्ण के] श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके, दोनों हाथ जोड़कर, इष्ट, [कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अत्यन्त मनोहर] यावत् वाणी से इस प्रकार बोले
१६५-'बुज्झाहि भयवं! लोगनाहा! पवत्तेहि धम्मतित्थं, जीवाणं हिय-सुह-निस्सेयसकरं भविस्सइ'त्ति कटु दोच्चं पि एवं वयंति।वइत्ता मल्लिं अरहं वंदन्ति नमंसन्ति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
___ 'हे लोक के नाथ! हे भगवन् ! बूझो-बोध पाओ। धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो। वह धर्मतीर्थ जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और निःश्रेयसकारी (मोक्षकारी) होगा।' इस प्रकार कह कर दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहा। कहकर अरहन्त मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में लौट गए।
विवेचन-तीर्थंकर अनेक पूर्वभवों के सत्संस्कारों के साथ जन्म लेते हैं। जन्म से ही, यहाँ तक कि गर्भावस्था से ही उनमें अनेक विशिष्टताएँ होती हैं। वे स्वयंबुद्ध ही होते हैं। किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता उन्हें नहीं होती। फिर लोकान्तिक देवों के आगमन की और प्रतिबोध देने की आवश्यकता क्यों होती है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रकारान्तर से मूल पाठ में ही आ गया है। तीर्थंकर को प्रतिबोध की आवश्यकता
१. लोकान्तिक देवों के विषय में टीकाकार अभयदेवसूरि ने लिखा है-'क्वचित् दश विधा एते व्याख्यायन्ते, अस्माभिस्तु
स्थानाङ्गनुसारेणैवमभिहिताः।' अर्थात् कहीं-कहीं लोकान्तिक देवों के दस भेदकहे हैं, किन्तु हमने स्थानांगसूत्र के
अनुसार ही यहाँ भेदों का कथन किया है। स्थानाङ्गवत्ति प. १६०, सिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमिति-संस्करण। २. अष्टम अ. १५७ ३-४. प्र. अ. १८