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________________ २७०] [ज्ञाताधर्मकथा देते रहते थे। १६१-तए णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ'एवं खलु देवाणुप्पिया! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूणं समणाय य जाय परिवेसिज्जइ। __वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं। सुर-असुर-देव-दाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे॥ तत्पश्चात् मिथिला राजधानी में शृंगाटक, त्रिक, चौक आदि मार्गों में बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो! कुम्भ राजा के भवन में सर्वकामगुणित अर्थात् सब प्रकार के सुन्दर रूप, रस, गंध और स्पर्श वाला-मनोवाञ्छित रस-पर्याय वाला तथा इच्छानुसार दिया जाने वाला विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बहुत-से श्रमणों आदि को यावत् परोसा जाता है। तात्पर्य यह है कि कुम्भ राजा द्वारा जगह-जगह भोजनशालाएँ.खुलवा देने और भोजनदान देने की गली-गली में सर्वत्र चर्चा होने लगी। वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है। अर्थात् और तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हें क्या चाहिए? इस प्रकार पूछ-पूछ कर याचक की इच्छानुसार छान दिया जाता है। १६२-तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीइंच होंति कोडीओ असिइं च सयसहस्साइं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलइत्ता निक्खमामि त्ति मणं पहारेइ। उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर मैं दीक्षा ग्रहण करूं' ऐसा मन में निश्चय किया। १६३–तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिठे विमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाणेहिं, सएहिं सएहिं पासायवडिंसएहिं, पत्तेयं पत्तेयं चउहिंसामाणियसाहस्सीहिं, तिहिं परिसाहि, सत्तहिं अणिएहि, सत्तहिं अणियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहि य बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महयाहयनZगीयवाइयजाव[तंती-तल-तालतुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइय] रवेणं भुंजमाणा विहरति। तंजहा सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य। तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिद्वा य॥ उस काल और उस समय में लोकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवें देवलोक-स्वर्ग में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट-पाथड़े में, अपने-अपने विमान से, अपने-अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक-प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों से, तीन-तीन परिषदों से, सात-सात अनीकों से, सात-सात अनीकाधिपतियों (सेनापतियों) से, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों से तथा अन्य अनेक लोकान्तिक देवों से युक्त परिवृत होकर, खूब जोर से बजाये जाते हुए [तन्त्री, तल, ताल, त्रुटिक, घन, मृदंग आदि वाद्यों] नृत्यों-गीतों के १.प्र. अ.७७
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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