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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२६९ . विवेचन-पृथ्वी का एक नाम 'वसुन्धरा' भी है। वसुन्धरा का शब्दार्थ है-वसु अर्थात् धन को धारण करने वाली। 'पदे पदे निधानानि' कहावत भी प्रसिद्ध है, जिसका आशय भी यही है कि इस पृथ्वी में जगह-जगह निधान-खजाने भरे पड़े हैं। जृम्भक देव अवधिज्ञानी होते हैं। उन्हें ज्ञान होता है कि कहाँ-कहाँ कितना द्रव्य गड़ा पड़ा है। जिन निधानों का कोई स्वामी नहीं बचा रहता, जिनका नामगोत्र भी निश्शेष हो जाता है, जिनके वंश में कोई उत्तराधिकारी नहीं रहता, जो निधान अस्वामिक हैं, उनमें से जृम्भक देव इतना द्रव्य निकाल कर तीर्थंकर के वर्षीदान के लिए उनके घर में पहुँचाते हैं।
१५८-तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणइ।
तत्पश्चात् वह वैश्रवण देव जहाँ शक्र देवेन्द्र देवराज था, वहाँ आया। आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसने इन्द्र की आज्ञा वापिस सौंपी।
१५९-तएणं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिंजाव मागहओ पायरासो त्ति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाई सयसहस्साहं इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयइ।
तत्पश्चात् मल्ली अरिहंत ने प्रतिदिन प्रात:काल से प्रारम्भ करके मगध देश के प्रातराश (प्रातः कालीन भोजन) के समय तक अर्थात् दोपहर पर्यन्त बहुत-से सनाथों, अनाथों पांथिकों-निरन्तर मार्ग पर चलने वाले पथिकों, पथिकों-राहगीरों अथवा किसी के द्वारा किसी प्रयोजन से भेजे गये पुरुषों, करोटिककपाल हाथ से लेकर भिक्षा मांगने वालों, कार्पटिक-कंथा कोपीन या गेरुए वस्त्र धारण करने वालों अथवा कपट से भिक्षा माँगने वालों अथवा एक प्रकार के भिक्षुक विशेषों को पूरी एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमोहरें दान में देना आरम्भ किया।
१६०-तए णं से कुंभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे बहूओ महाणससालाओ करेइ। तत्थ णं बहवेमणुया दिण्णभइ-भत्त-वेयणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेंति।उवक्खडित्ता जे जहा आगच्छंति तंजहा-पंथिया वा, पहिया वा, करोडिया वा, कप्पडिया वा, पासंडत्था वा, गिहत्था वा तस्स यतहा आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स तं विपुलं असणं पाणं-खाइमं साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति।
तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने भी मिथिला राजधानी में तत्र तत्र अर्थात् विभिन्न मुहल्लों या उपनगरों में, तहिं तहिं अर्थात् महामार्गों में तथा अन्य अनेक स्थानों में, देशे देशे अर्थात् त्रिक, चतुष्क आदि स्थानों-स्थानों में बहुत-सी भोजनशालाएँ बनवाईं। उन भोजनशालाओं में बहुत-से-मनुष्य, जिन्हें भृति-धन, भक्त-भोजन और वेतन-मूल्य दिया जाता था, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाते थे। बना करके जो लोग जैसे-जैसे आते-जाते थे जैसे कि-पांथिक (निरंतर रास्ता चलने वाले), पथिक (मुसाफिर), करोटिक (कपाल-खोपड़ी लेकर भीख मांगने वाले) कार्पटिक (कंथा, कौपीन या कषाय वस्त्र धारण करने वाले) पाखण्डी (साधु, बाबा, संन्यासी) अथवा गृहस्थ, उन्हें आश्वासन देकर, विश्राम देकर और सुखद आसन पर बिठला कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य दिया जाता था, परोसा जाता था। वे मनुष्य वहाँ भोजन आदि