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[ ज्ञाताधर्मकथा
देवाप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जाव असीइं च सयसहस्साइं दलइत्तए, तं गच्छह vi देवाप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुंभगभवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि । '
शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया। विचार करके उसने वैश्रवण देव को बुलवाया और बुलाकर कहा'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् [ मल्ली अरिहंत ने दीक्षा लेने का विचार किया है, अतएव] तीन सौ अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है। सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो - इतना धन लेकर पहुंचा दो । पहुंचा करके शीघ्र ही मेरी यह आज्ञा वापिस सौंपो । '
१५६ - तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे करयल जाव' पडिसुणेइ, पडिणित्ता जंभए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी – 'गच्छह णं तुब्भे देवाप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं, कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीयं च कोडीओ असीइं च सयसहस्साइं अयमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहरह, साहरित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।'
तत्पश्चात् वैश्रवण देव, शक्र देवेन्द्र देवराज के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ। हाथ जोड़ कर उसने यावत् मस्तक पर अंजलि घुमाकर आज्ञा स्वीकार की। स्वीकार करके जृंभकदेवों को बुलाया। बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा—‘देवानुप्रियो ! तुम जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में और मिथिला राजधानी में जाओ और कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख अर्थ सम्प्रदान का संहरण करो, अर्थात् इतनी सम्पत्ति वहाँ पहुँचा दो। संहरण करके यह आज्ञा मुझे वापिस लौटाओ ।'
१५७ – तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव [ एवं वुत्ता समाणा ] पडिसुणेत्ता उत्तर- पुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता जाव [ वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरंति जाव ] उत्तरवेडव्वियाई रुवाई विउव्वंति, विउव्वित्ता ता उक्कट्ठा जाव' वीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुंभगस्स रण्णो भवसि कोडिसया जाव साहरंति । साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव पच्चप्पिणंति ।
तत्पश्चात् वे जृंभक देव, वैश्रवण देव की आज्ञा सुनकर उत्तरपूर्व दिशा में हो गये। जाकर उत्तरवैक्रिय [वैक्रिय समुद्घात किया, समुद्घात करके संख्यात योजन का दंड निकाला], फिर उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की । विकुर्वणा करके देव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जाते हुए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप था, भरतक्षेत्र था, जहाँ मिथिला राजधानी थी और जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, वहाँ पहुँचे। पहुँच कर कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ करोड़ आदि पूर्वोक्त द्रव्य सम्पत्ति पहुँचा दी। पहुँचा कर वे जृंभक देव, वैश्रवण देव के पास आये और उसकी आज्ञा वापिस लौटाई ।
१. प्र. अ. ७०