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________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ] आकर उन्हें कुम्भ राजा के चरणों में नमस्कार कराया। तब कुम्भ राजा ने उन जितशत्रु वगैरह का विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। १५१ - तए णं जियसत्तुपामोक्खा कुंभएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साईं साई रज्जाई, जेणेव नयराइं, तेणेव उवागच्छंति । उवागच्छित्ता सयाइं सयाइं रज्जाई उवसंपज्जित्ता विहरति । तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा विदा किए हुए जितशत्रु आदि राजा जहाँ अपने-अपने राज्य थे, जहाँ अपने-अपने नगर थे, वहाँ आये। आकर अपने-अपने राज्यों का उपभोग करते हुए विचरने लगे। १५२ - तए णं मल्ली अरहा 'संवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि' त्ति मणं पहारे । तत्पश्चात् अरिहन्त मल्ली ने अपने मन में ऐसी धारणा की कि 'एक वर्ष के अन्त में मैं दीक्षा ग्रहण करूंगी।' [ २६७ १५३ – तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्स आसणं चलइ । तए णं सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता मल्लिं अरहं ओहिणा आभोएड़, आभोइत्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव [ चिंतिए पत्थिए मणोगते संकप्पे ] समुप्पज्जित्था - ' एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे भारंहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रण्णो ( धूआ ) मल्ली अरहा निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारे । ' उस काल और उस समय में शक्रेन्द्र का आसन चलायमान हुआ। तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपना आसन चलायमान हुआ देखा। देख कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया - उपयोग लगाया। उपयोग लगाने पर उसे ज्ञात हुआ-तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन एवं खयाल हुआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहन्त ने एक वर्ष के पश्चात् 'दीक्षा लूंगी' ऐसा विचार किया है। १५४–'तं जीयमेयं तीय-पच्चुप्पन्न - मणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं, अरहंताण भगवंताणं णिक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलित्तए । तं जहातिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीइं च होंति कोडीओ । असि च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं ॥ (शक्रेन्द्र ने आगे विचार किया - ) तो अतीत काल, वर्तमान काल और भविष्यत् काल के शक्र देवेन्द्र देवराजों का यह परम्परागत आचार है कि- तीर्थंकर भगवंत जब दीक्षा अंगीकार करने को हों, तो उन्हें इतनी अर्थ-सम्पदा (दान देने के लिए) देनी चाहिए। वह इस प्रकार है 'तीन सौ करोड़ (तीन अरब) अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख द्रव्य (स्वर्ण मोहरें ) इन्द्र अरिहन्तों को देते हैं । ' १५५ – एवं संपेहेइ, संपेहित्ता वेसमणं देव सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - ' एवं खलु १. प्र. अ. १८
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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