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________________ २५६] [ज्ञाताधर्मकथा किया-बैठने को आसन दिया। ११८-तएणं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव [दब्भोवरि पच्चत्थुयाए]भिसियाए निविसइ,जियसत्तुं राय रज्जे य जाव [रठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ। तए णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रण्णो दाणधम्मच जाव' विहरइ। तत्पश्चात् वह चोक्खा परिव्राजिका जल छिड़ककर यावत् डाभ पर बिछाए अपने आसन पर बैठी। फिर उसने जितशत्रु राजा, यावत् [राष्ट्र, कोश, कठोर, बल, वाहन, पुर तथा] अन्त:पुर के कुशल-समाचार पूछे। इसके बाद चोक्खा ने जितशत्रु राजा को दानधर्म आदि का उपदेश दिया। ११९-तए णं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं परिव्वाइयं एवं वयासी-'तुमं णं से देवाणुप्पिए! बहूणि गामागर जाव अडसि, बहूण य राईसरगिहाई अणुपविससि, तं अत्थियाइंते कस्स विरण्णो वा जाव [ईसरस्स वा कहिंचि] एरिसए ओरोहे दिट्ठपुव्वे जारिसए णं इमे मह उवरोहे?' तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा अपने रनवास में अर्थात् रनवास की रानियों के सौन्दर्य आदि में विस्मययुक्त था, (अपने अन्तःपुर को सर्वोत्कृष्ट मानता था) अतः उसने चोक्खा परिव्राजिका से पूछा-'हे देवानुप्रिय! तुम बहुत-से गांवों, आकरों आदि में यावत् पर्यटन करती हो और बहुत-से राजाओं एवं ईश्वरों के घरों में प्रवेश करती हो तो कहीं किसी भी राजा आदि का ऐसा अन्त:पुर तुमने कभी पहले देखा है, जैसा मेरा यह अन्तःपुर है?' १२०–तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया जियसत्तुणा एवं वुत्ता समाणी ईसिं अवहसियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-'एवं च सरिसए णं तुमे देवाणुप्पिया! तस्स अगडददुरस्स।' . 'केस णं देवाणुप्पिए! से अगडददुरे?' 'जियसत्तू! से जहानामए अगडदर्दुरेसिया, से णं तत्थ जाए तत्थेववुड्ढे, अण्णं अगडं वा तलागं वा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे एवं मण्णइ-'अयं चेव अगडे वा जाव सागरे वा।' तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दर्दुरे हव्वमागए। तए णं से कूवदर्दुरे तं सामद्ददद्दूर एवं वयासी-'से केस णं तुमं देवाणुप्पिया! कत्तो वा इह हव्वमागए ?' तए ण से सामुद्दए ददुरेतंकूवदडुरंएवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुद्दए दद्दुरे।' तएणं से कूवददुरे तं सामुद्दय दडुरं एवं वयासी-'केमहालए णं देवाणुप्पिया! ते समुद्दे ?' तएणं से सामुद्दए ददुरेतं कूवददुरंएवं वयासी-'महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे।' तए णं से कूवददुरे पाएणं लीहं कड्ढेइ, कड्डित्ता एवं वयासी–एमहालए णं १. अष्टम अ. ११०
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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