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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२५५ अप्पेगइयाओ तज्जेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ तालेमाणीओ करेंति, अप्पेगइयाओ निच्छुभंति।
तए णं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्जमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता जाव मिसमिसेमाणा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावजइ, भिसियं गेण्हइ, गेण्हित्ता कण्णंतेउराओपडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता, मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गछित्ता परिव्वाइयासंपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं राईसर जाव' परूवेमाणी विहरइ।
तत्पश्चात् मल्ली की बहुत-सी दासियां चोक्खा परिव्राजिका की (जाति आदि प्रकट करके) हीलना करने लगी, मन से निन्दा करने लगीं, खिंसा (वचन से निन्दा) करने लगीं, गर्दा (उसके सामने ही दोष कथन) करने लगीं, कितनीक दासियाँ उसे क्रोधित करने लगीं-चिढ़ाने लगीं, कोई-कोई मुँह मटकाने लगी, कोई-कोई उपहास करने लगीं, कोई उंगलियों से तर्जना करने लगीं, कोई ताड़ना करने लगीं और किसी-किसी ने अर्धचन्द्र देकर उसे बाहर कर दिया।
तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली की दासियों द्वारा यावत् गर्दा की गई और अवहेलना की गई चोक्खा एकदम क्रुद्ध हो गई और क्रोध से मिसमिसाती हुई विदेहराजवरकन्या मल्ली के प्रति द्वेष को प्राप्त हुई। उसने अपना आसन उठाया और कन्याओं के अन्तःपुर से निकल गई। वहाँ से निकलकर मिथिला नगरी से भी निकली और परिव्राजिकाओं के साथ जहाँ पंचाल जनपद था, जहाँ काम्पिल्यपुर नगर था वहाँ आई और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों-राजकुमारों-ऐश्वर्यशाली जनों आदि के सामने यावत् अपने धर्म की-दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थाभिषेक आदि की प्ररूपणा करने लगी।
११७-तए णं से जियसत्तू अन्नया कयाई अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे एवं जाव [सीहासणवरगए यावि] विहरइ।
तए णं सा चोक्खा परिव्वाइयासंपरिवुडा जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो भवणे, जेणेव जियसत्तू तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अणुपक्सिइ, अणुपविसित्ता जियसत्तुंजएणं विजएणं वद्धावेइ।
तएणं से जियसत्तू चोक्खं परिव्वाइयं एजमणं पासइ, पासित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता चोक्खं परिव्वाइयं सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ।
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा एक बार किसी समय अपने अन्त:पुर और परिवार से परिवृत होकर सिंहासन पर बैठा था।
तत्पश्चात् परिव्राजिकाओं से परिवृता वह चोक्खा जहाँ जितशत्रु राजा का भवन था और जहाँ जितशत्रु राजा था, वहाँ आई। आकर भीतर प्रवेश किया। प्रवेश करके जय-विजय के शब्दों से जितशत्रु का अभिनन्दन किया-उसे वधाया।
उस समय जितशत्रु राजा ने चोक्खा परिव्राजिका को आते देखा। देखकर सिंहासन से उठा। उठकर चोक्खा परिव्राजिका का सत्कार किया। सम्मान किया। सत्कार-सम्मान करके आसन के लिए निमंत्रण
१. अष्टम अ. ११०