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________________ [२४५ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] काशीराज शंख ८६-तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामंजणवए होत्था। तत्थ णं वाणारसी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं संखे नामंकासीराया होत्था। ____ उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था। उस जनपद में वाणारसी नामक नगरी थी। उसमें काशीराज शंख नामक राजा था। ८७-तएणं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए अन्नया कयाइं तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था। तए णं कुंभए राया सुवनगारसेणिं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया! इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह।' एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डल-युगल का जोड़ खुल गया। तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़े को सांध दो।' ८८-तए णं सा सुवण्णगारसेणी एयमढें तह त्ति पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगारभिसियासु णिवेसेइ, णिवेसित्ता बहूहिं आएहिं य जाव [उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य बुद्धीहिं] परिणामेमाणा इच्छंति तस्स दिव्वस्स कुडंलजुयलस्स संधिं घडित्तए, नो चेव णं संचाएंति संघडित्तए। तत्पश्चात् सुवर्णकारों की श्रेणी ने 'तथा-ठीक है', इस प्रकार कह कर इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार करके उसे दिव्य कुण्डलयुगल को ग्रहण किया। ग्रहण करके जहाँ सुवर्णकारों के स्थान (औजार रखने से स्थान) थे, वहाँ आये। आकर के उन स्थानों पर कुण्डलयुगल रखा। रख कर बहुत-से [यत्नों से, उपायों से, औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी बुद्धियों से ] उस कुण्डलयुगल को परिणत करते हुए उसका जोड़ साँधना चाहा, परन्तु साँधने में समर्थ न हो सके। ८९-तएणंसा सुवनगारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-'एवं खलु सामो ! अज तुब्भे अम्हे सद्दावेह। सद्दावेत्ता जाव संधिं संघाडेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो। जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडित्तए।तएणं अम्हे सामी ! एयस्स दिव्वस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो।' __ तत्पश्चात् वह सुवर्णकार श्रेणी, कुम्भ राजा के पास आई। आकर दोनों हाथ जोड़ कर और जयविजय शब्दों से वधा कर इस प्रकार निवेदन किया-'स्वामिन् ! आज आपने हम लोगों को बुलाया था। बुला कर यह आदेश दिया था कि कुण्डलयुगल की संधि जोड़ कर मेरी आज्ञा वापिस लौटाओ। तब हमने यह दिव्य कुण्डलयुगल लिया। हम अपने स्थानों पर गये, बहुत उपाय किये, परन्तु उस संधि को जोड़ने के लिए शक्तिमान् न हो सके। अतएव (आपकी आज्ञा हो तो) हे स्वामिन्! हम दिव्य कुण्डलयुगल सरीखा दूसरा
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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