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[ज्ञाताधर्मकथा तए णं सुबाहू दारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ। तए णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता सुबाहुए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए वरिसधरं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी–'तुमं णं देवाणुप्पिया! मम दोच्चेणं बहूणि गामागरनगर जाव सण्णिवेसाइं आहडिंसि, बहूण य राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं गिहाणि अणुपविससि, तं अत्थियाइंसे कस्सइरण्णो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए मजणए दिट्ठपुव्वे, जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मजणए ?'
___ तत्पश्चात् अन्तःपुर की स्त्रियों ने सुबाहु कुमारी को पाट पर बिठलाया। बिठला कर श्वेत और पीत अर्थात् चाँदी और सोने आदि के कलशों से उसे स्नान कराया। स्नान करा कर सब अलंकारों से विभूषित किया। फिर पिता के चरणों में प्रणाम करने के लिए लाईं।
तब सुबाहु कुमारी रुक्मि राजा के पास आई। आकर पिता के चरणों का स्पर्श किया।
उस समय रुक्मि राजा ने सुबाहु कुमारी को अपनी गोद में बिठा लिया। बिठा कर सुबाहु कुमारी के रूप, यौवन और लावण्य को देखने से उसे विस्मय हुआ। विस्मित होकर उसने वर्षधर को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय! तुम मेरे दौत्य कार्य से बहुत-से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् सन्निवेशों में भ्रमण करते हो और अनेक राजाओं, राजकुमारों यावत् सार्थवाहों आदि के गृह में प्रवेश करते हो, तो तुमने कहीं भी किसी राजा या ईश्वर (धनवान्) के यहाँ ऐसा मजनक (स्नान-महोत्सव) पहले देखा है, जैसा इस सुबाहु कुमारी का मजन-महोत्सव है ?'
८४-तए णं से वरिसधरे रुप्पिं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-एवं खलु सामी! अहं अन्नया तुब्भेणं दोच्चेणं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रणो धूयाए, पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नयाए मजणए दिढे, तस्स णं मजणगस्स इमे सुबाहूए दारियाए मज्जणए सयसहस्सइमं पि कलं न अग्घेइ।
तत्पश्चात् वर्षधर (अन्तःपुर के रक्षक षंढ-विशेष) ने रुक्मि राजा से हाथ जोड़ कर मस्तक पर हाथ घुमाकर अंजलिबद्ध होकर इस प्रकार कहा-'हे स्वामिन् ! एक बार मैं आपके दूत के रूप में मिथिला गया था मैंने वहाँ कुंभ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली का स्नानमहोत्सव देखा था। सुबाहु कुमारी का यह मज्जन-उत्सव उस मज्जनमहोत्सव के लाखवें अंश को भी नहीं पा सकता।'
८५-तएणंसेरुप्पीराया वरिसधरस्सअंतिए एयम सोच्चा णिसम्म सेमंतहेव मजणगजणियहासे दूतं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तत्पश्चात् वर्षधर से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके, मज्जन-महोत्सव का वृत्तांत्त सुनने से जनित हर्ष (अनुराग) वाले रुक्मि राजा ने दूत को बुलाया। शेष सब वृत्तांत्त पहले के समान समझना। दूत को बुलाकर इस प्रकार कहा-(मिथिला नगरी में जाकर मेरे लिए मल्ली कुमारी की मँगनी करो। बदले में सारा राज्य देना पड़े तो उसे भी देना स्वीकार करना, आदि) यह सुनकर दूत मिथिला नगरी जाने को रवाना हो गया।!