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________________ २३८] [ज्ञाताधर्मकथा निश्चय ही मुझे कोई देव, दानव [यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग या गन्धर्व-कोई भी देव अथवा दैवी शक्ति] निर्ग्रन्थप्रवचन से चलायमान नहीं कर सकता, क्षुब्ध नहीं कर सकता और विपरीत भाव उत्पन्न नहीं कर सकता। तुम्हारी जो श्रद्धा (इच्छा) हो सो करो।' इस प्रकार कह कर अर्थात् उस पिशाच को चुनौती देकर अर्हन्नक निर्भय, अपरिवर्तित मुख के रंग और नेत्रों के वर्ण वाला, दैन्य और मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पन्द, मौन और धर्म-ध्यान में लीन बना रहा। ६८-तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-'हंभो अरहन्नगा!'जाव अदीणविमणमाणसे निच्चले निष्फंदे तुसिणीए धमज्झाणोवगए विहड़। तत्पश्चात् वह दिव्य पिशाचरूप अर्हनक श्रमणोपासक से दूसरी बार और फिर तीसरी बार कहने लगा-'अरे अर्हन्नक!' इत्यादि कहकर पूर्ववत् धमकी दी। यावत् अर्हन्नक ने भी वही उत्तर दिया और वह दीनता एवं मानसिक खेद से रहित, निश्चल, निस्पंद, मौन और धर्मध्यान में लीन बना रहा-उस पर पिशाच की धमकी का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा। ६९-तए णं से पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हइ, गिण्हित्ता सत्तट्ठत (ता) लाइं जाव अरहन्नगं एवं वयासी-'हं भो अरहन्नगा ! अपत्थियपत्थिया ! णो खलु कप्पइ तव सीलव्वय-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासाइं तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ। तत्पश्चात् उस दिव्य पिशाचरूप ने अर्हन्नक को धर्मध्यान में लीन देखा। देखकर उसने और अधिक कुपित होकर उस पोतवहन को दो उंगलियों से ग्रहण किया। ग्रहण करके सात-आठ मंजिल की या ताड़ के वृक्षों की ऊँचाई तक ऊपर उठाकर अर्हन्नक से कहा-'अरे अर्हन्नक! मौत की इच्छा करने वाले! तुझे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पौषध आदि का त्याग करना नहीं कल्पता है, इत्यादि सब पूर्ववत् समझना चाहिए। किन्तु इस प्रकार कहने पर भी अर्हन्नक किंचित् भी चलायमान न हुआ और धर्मध्यान में ही लीन बना रहा। ७०–तएणं से पिसायरूवे अरहन्नगंजाहे नो संचाएइ निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे उवसंते जाव निविण्णे तं पोयवहणं सणियं सणियं उवरिं जलस्स ठवेइ, ठवित्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता अंतलिक्खपडिवन्ने सखिंखिणियाइं जाव [ दसद्धवण्णाई वत्थाई पवर ] परिहिए अरहन्नगं समणोवासयं एवं वयासी ___तत्पश्चात् वह पिशाचरूप जब अर्हन्नक को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से चलायमान, क्षुभित एवं विपरिणत करने में समर्थ नहीं हुआ, तब वह उपशान्त हो गया, यावत् मन में खेद को प्राप्त हुआ। फिर उसने उस पोतवहन को धीरे-धीरे उतार कर जल के ऊपर रखा। रखकर पिशाच के दिव्य रूप का संहरण किया-उसे समेट लिया और दिव्य देव के रूप की विक्रिया की। विक्रिया करके, अधर स्थिर होकर धुंघुरुओं की छम्छम्
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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