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आठवाँ अध्ययन : मल्ली]
[२३७ पाठ उच्चारण किया)। फिर कहा-'यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊँ तो मुझे यह कायोत्सर्ग पारना कल्पता है और यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊँ तो यही प्रत्याख्यान कल्पता है, अर्थात् कायोत्सर्ग पारना नहीं कल्पता।' इस प्रकार कह कर उसने सागारी अनशन ग्रहण कर लिया।
६६-तए णं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी
_ 'हं भो अरहन्नगा! अपत्थियपत्थिया! जाव[दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसिया! सिरि-हिरि-धिइ-कत्ति] परिवजिया!णो खलुकप्पइ तवसील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासाइंचालित्तए वा एवं खोभेत्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए वा।तं जइणं तुमंसीलव्वयं जावणं परिच्चयसि तो ते अहं एयं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि, गेण्हित्ता सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताई उड्ढं वेहासे उव्विहामि, उव्विहित्ता अंतो जलंसि णिच्छोलेमि, जेणं तुमं अठ्ठ-दुहट्ट-वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि।'
तत्पश्चात् वह पिशाचरूप वहाँ आया, जहाँ अर्हनक श्रमणोपासक था। आकर अर्हन्नक से इस प्रकार कहने लगा- .
- 'अरे अप्रार्थित'-मौत-की प्रार्थना (इच्छा) करने वाले! यावत्! [कुलक्षणी! अभागिनी-काली चौदस के जन्मे!, लज्जा, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी से] परिवर्जित! तुझे शीलव्रत-अणुव्रत, गुणव्रत, विरमणरागादि की विरति का प्रकार, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से चलायमान होना अर्थात् जिस भांगे से जो व्रत ग्रहण किया हो उसे बदल कर दूसरे भांगे से कर लेना, क्षोभयुक्त होना अर्थात् 'इस व्रत को इसी प्रकार पालूँ या त्याग दूं' ऐसा सोच कर क्षुब्ध होना, एक देश से खण्डित करना; पूरी तरह भंग करना, देशविरति का सर्वथा त्याग करना कल्पता नहीं है। परन्तु तू शीलव्रत आदि का परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस पोतवहन को दो उंगलियों पर उठाए लेता हूँ और सात-आठ तल की ऊँचाई तक आकाश में उछाले देता हूँ और उछाल कर इसे जल के अन्दर डुबाए देता हूँ, जिससे तू आर्तध्यान के वशीभूत होकर, असमाधि को प्राप्त होकर जीवन से रहित हो जायगा-मौत का ग्रास बन जायगा।' ।
६७-तएणं से अरहन्नए समणोवासए तं देवंचेव एवं वयासी-'अहं णं देवाणुप्पिया! अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे, नो खलु अहं सक्का केणइ देवेण वा जाव [दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा] निग्गंथाओ पावयणाओ चलित्तए वा खोभेत्तए वा विपरिणामेत्तए वा, तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव' अभिन्नमुहरागणयणवन्ने अदीणविमणमाणसे निच्चले निफंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ।
____ तब अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! मैं अर्हन्नक नामक श्रावक हूँ और जड़-चेतन के स्वरूप का ज्ञाता हूँ (मुझे कुछ ऐसा-वैसा अज्ञान या कायर मत समझना)। १. अ. प्र.६५